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/ग़ज़ल : ज़मीं ख़ुद में सियाही बो रही है/ बह्र : १२२२ १२२२ १२२
1222/1222/122
वो मेरे पास में बैठी हुई है
फ़ज़ा में रौशनाई बढ़ रही है
मेरे इस चांद का दीदार करके
फ़लक की चांदनी शर्मा गई है

वो मेरे सामने खुलने लगे हैं
मुझे ताले की चाभी मिल गई है

यहाँ है हाल-ए-ज़ेहन-ए-मुल्क ऐसा
कि अब भाषा भी दीनी हो चुकी है
यहाँ हिन्दी को हिन्दू हैं समझते
यहाँ उर्दू मुसलमाँ हो गई है

वो चिड़िया जो बग़ावत कर रही थी
कफ़स को तोड़ कर उड़ने लगी है
खुशी इस बात की है...