...

29 views

/ग़ज़ल : ज़मीं ख़ुद में सियाही बो रही है/ बह्र : १२२२ १२२२ १२२
1222/1222/122
वो मेरे पास में बैठी हुई है
फ़ज़ा में रौशनाई बढ़ रही है
मेरे इस चांद का दीदार करके
फ़लक की चांदनी शर्मा गई है

वो मेरे सामने खुलने लगे हैं
मुझे ताले की चाभी मिल गई है

यहाँ है हाल-ए-ज़ेहन-ए-मुल्क ऐसा
कि अब भाषा भी दीनी हो चुकी है
यहाँ हिन्दी को हिन्दू हैं समझते
यहाँ उर्दू मुसलमाँ हो गई है

वो चिड़िया जो बग़ावत कर रही थी
कफ़स को तोड़ कर उड़ने लगी है
खुशी इस बात की है देख उसको
बग़ावत और भी बढ़ने लगी है

अना गिरने लगी है हर क़लम की
क़लमकारी ज़मीं खोने लगी है
उगाने को नयी ख़ुद्दार क़लमें
ज़मीं ख़ुद में सियाही बो रही है

कोई कुत्तों में रोटी बाँट देता
किसी का ख़्वाब इक रोटी रही है

भरोसा 'शम्स' था उसकी जुबाँ पर
मगर वो भी सियासी हो गई है



बह्र : 1222/1222/122

एक किता समात करें (उनके लिए जो लोग बिना पढ़े लाइक कर के चले जाते हैं)----

भला ऐसा भी क्या करता है कोई
जो हरकत आपने महफ़िल में की है
पढ़े बिन शायरों से कह रहे हैं
कि उनकी शायरी दिल पे लगी है 😃

रौशनाई : नूर
हाल-ए-ज़ेहन-ए-मुल्क : देश की वैचारिकी का हाल
दीनी : धर्म संबंधी

#shayri #ghazal #poetry #writcoquote



© 'शम्स'