...

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रण बाँकुरे
जज्बातों में तूफ़ान था,
मगर नहीं वो आसान था।
न सोने को पूरी जमीं थी,
न जागने को आसमान था।

हौसला दे रही थी तो सिर्फ तन की वर्दी,
न धूप की परवाह, नहीं लग रही थी सर्दी।
आंखों में लेकर आग की चिंगारियां बढ़े थे आगे,
नेस्तनाबूद कर दिया दुश्मन को, नहीं चलने दी उसकी मर्ज़ी।

थकान,भूख,प्यास सब दे रहे थे अपनी -अपनी दस्तक,
वो फिर भी खुश थे,ऊँचा किया था माँ भारती का मस्तक।
मिटाकर हस्तियां दुश्मनों की,कामयाबी का परचम लहराया था,
दे रहे थे सब सलामी उनके जज्बे को,हर भारतीय था नतमस्तक।

मगर अफ़सोस कि बहुत कम किसी को ये मलाल होता है,
सब सोते हैं सुकून की नींद फिर भी जाग रहा मां भारती का लाल होता है।
अगर सब समझ जाएं जिम्मेदारियां अपनी-अपनी तो कभी ये कत्लेआम न हो,
मगर दुश्मनों को अपने देश में पनाह देने वाला कोई अपना ही दलाल होता है।