...

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zindagi
जब उतरता है तेरी याद का लश्कर मुझ में
टूट जाता है मेरे सब्र का पैकर मुझ में

मैं तो बस आपकी शाख़ों पे खिली रहती हूँ
मेरी बाहों में सिमट जाओ बिखर कर मुझ में

मैं के वो झील हूँ जिसमें कोई हलचल ही नहीं
काश चुपके से कोई फ़ेंक दे कंकर मुझ में

अब न वो मैं हूँ न जज़्बात , बस इक पत्थर हूँ
दिल मगर दिल है धड़कता है बराबर मुझ में

मैंने ख़ुद अपनी तमन्नाओं के पर नोच दिए
फड़फड़ाता है मगर कोई कबूतर मुझ में

मेरी नज़रें नज़र अंदाज़ न कीजे साहब
जाग उट्ठे न कहीं हुस्न के तेवर मुझ में
© sneha_

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