...

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ग़ज़ल
हमेशा मर्द ही पिसता रहा है
जहाँ की भीड़ में तन्हा रहा है
नहीं आया बचाने कोई उसको
वो ख़ातिर अपनों के लड़ता रहा है

लुभाया झूठ ने सबको बहुत ही
मगर वो बात सच कहता रहा है

उगलता है कभी तो आग सूरज
कभी बादल में वो छुपता रहा है

बदलता ही रहा है चांद भी तो
कभी पूरा कभी आधा रहा है

मुसलसल ज़िंदगी के इस "सफ़र" में
क़दम दर वो क़दम चलता रहा है
© -प्रेरित 'सफ़र'