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ग़ज़ल - कहीं वो अब भी...
कहीं वो अब भी मुझी में उमर बिताती है,
नज़्म बनके वो तभी तो लबों पे आती है।
दिन में रहता हूँ ज़माने में मैं मसरूफ मग़र,
रात होते ही वो ख्वाबों में नज़र आती है।
कहीं वो अब भी...
मेरे कुछ अपने ही मुझको रुलाया करते हैं,
वो पर लबों पे हँसी बनके चली आती है।
कहीं वो अब भी...
फ़िर जो मिलते तो खुशी से मर मैं जाता शायद,
जिंदा रखा है, वो इतना तो रहम खाती है।
कहीं वो अब भी...
© AK. Sharma
नज़्म बनके वो तभी तो लबों पे आती है।
दिन में रहता हूँ ज़माने में मैं मसरूफ मग़र,
रात होते ही वो ख्वाबों में नज़र आती है।
कहीं वो अब भी...
मेरे कुछ अपने ही मुझको रुलाया करते हैं,
वो पर लबों पे हँसी बनके चली आती है।
कहीं वो अब भी...
फ़िर जो मिलते तो खुशी से मर मैं जाता शायद,
जिंदा रखा है, वो इतना तो रहम खाती है।
कहीं वो अब भी...
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