...

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तुम्हारा इंतजार है जींदगी को....
होश न रहा.. पर
सोंच गतिशील रहा...
क्यूँ भरा था मांग मे सिंदूर तुझको...
दो किनारों को मै पाटने चला था
मांग का सिंदूर तो अभिशप्त हुआ
मै तुम्हारे दर्द को बांटने चला था
लोहा.. लोहे को काटती है हमेशा
पर आग से आग कभी बुझती नही है
किस कदर व्याकुल, विकल, व्यथित है मन
सांसे घायल, घडकने बोझिल
ह्रदय बना शमसान सा निरव
कौन समझेगा मेरे खामोश सिसकियां
कौन देख सकता है..
दर्द की कडकती बिजलियां...