0 views
"अपनों में ढूँढते अपनों को"
अपनों में ढूँढते अपनों को,
ये ज़िन्दगी कैसी लाचार..!
परायों में बैठे दिखते,
अपशब्दों का करते उच्चार..!
छल की दुनिया में बढ़ता जाता,
अपनों का अत्याचार..!
ईर्ष्या कर गई घर मन में,
भूल गए यूँ शिष्टाचार..!
अकल पे पत्थर पड़ गए ऐसे,
भले बुरे का न विचार..!
जब तक जीवन तब तक,
पूछे न एक दूजे की ख़ैरियत समाचार..!
अंतिम पड़ाव में शामिल होकर,
बनते जनाजे के काँधे हिम्मती चार..!
© SHIVA KANT
ये ज़िन्दगी कैसी लाचार..!
परायों में बैठे दिखते,
अपशब्दों का करते उच्चार..!
छल की दुनिया में बढ़ता जाता,
अपनों का अत्याचार..!
ईर्ष्या कर गई घर मन में,
भूल गए यूँ शिष्टाचार..!
अकल पे पत्थर पड़ गए ऐसे,
भले बुरे का न विचार..!
जब तक जीवन तब तक,
पूछे न एक दूजे की ख़ैरियत समाचार..!
अंतिम पड़ाव में शामिल होकर,
बनते जनाजे के काँधे हिम्मती चार..!
© SHIVA KANT
Related Stories
0 Likes
0
Comments
0 Likes
0
Comments