पूछते हैं ये मुझसे......
आज कल मैं ज़रा कम ही बोलती हूं।
तनहाई से बातें ज्यादा करती हूं।
वफाई सिर्फ अकेलेपन से रखती हुं,
पूछते हैं ये लब मुझसे की किस कुसर से मुझे जंजीरों में जकड़ा है तूने,
क्या मैं तुझे इतनी ख़ुदग़र्ज़ लगती हूं।
मोहब्बत पे ज़रा कम ही ऐतबार रखती हुं।
मुस्कुराहट से ज़रा कम ही मिलती हूं
प्यार सिर्फ अब आंसुओं से करती हूं
पूछती है ये जिंदगी मुझसे की किस कुसूर से जुदा किया है तूने खुशियों से मुझे,
क्या मैं तुझे अब ज़रा भी नहीं भाती हूं।
काग़ज़ के पन्ने अब ज्यादा भरती हूं।
कलम की स्याही से ही मन बहलाती हूं।
वास्ता सिर्फ अंधेरे खाली कमरों से रखती हुं।
पूछती है ये महफ़िल मुझसे की किस कुसूर से रूठी है तू मुझसे,
क्या मैं तुझे अब बिल्कुल गैर सी लगती हूं।
मंजिल से अब थोड़ा उब सी गई हूं।
रास्तों में अब ज़रा रुकते ही रहती हूं
उम्मीद तो बस अब सन्नाटे और परछाई से रखती हूं,
पूछते हैं ये ख्वाब मुझसे की किस कुसूर से मुझे दबोचा है अपने जख्मों से तूने,
क्या मैं अब तुझे इतनी नाकाम लगती हूं।
✍️श्वेता🙏🌹🙏
तनहाई से बातें ज्यादा करती हूं।
वफाई सिर्फ अकेलेपन से रखती हुं,
पूछते हैं ये लब मुझसे की किस कुसर से मुझे जंजीरों में जकड़ा है तूने,
क्या मैं तुझे इतनी ख़ुदग़र्ज़ लगती हूं।
मोहब्बत पे ज़रा कम ही ऐतबार रखती हुं।
मुस्कुराहट से ज़रा कम ही मिलती हूं
प्यार सिर्फ अब आंसुओं से करती हूं
पूछती है ये जिंदगी मुझसे की किस कुसूर से जुदा किया है तूने खुशियों से मुझे,
क्या मैं तुझे अब ज़रा भी नहीं भाती हूं।
काग़ज़ के पन्ने अब ज्यादा भरती हूं।
कलम की स्याही से ही मन बहलाती हूं।
वास्ता सिर्फ अंधेरे खाली कमरों से रखती हुं।
पूछती है ये महफ़िल मुझसे की किस कुसूर से रूठी है तू मुझसे,
क्या मैं तुझे अब बिल्कुल गैर सी लगती हूं।
मंजिल से अब थोड़ा उब सी गई हूं।
रास्तों में अब ज़रा रुकते ही रहती हूं
उम्मीद तो बस अब सन्नाटे और परछाई से रखती हूं,
पूछते हैं ये ख्वाब मुझसे की किस कुसूर से मुझे दबोचा है अपने जख्मों से तूने,
क्या मैं अब तुझे इतनी नाकाम लगती हूं।
✍️श्वेता🙏🌹🙏