...

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कविता
शब्दों के जाल में फंसा हूं ऐसा,
निकल नहीं अब पाता हूं।
कलम उठाता हूं अक्सर
और छंदों से टकराता हूं।
अनगिनत वेदना उठती है अब,
दिल के कोने कोने में।
पल पल कदम बढ़ाता चलता,
फिर भी मैं गिर जाता हूं।
कभी देखता कलियों को और,
फिर मुरझाए फूलों को।
बेचैन किए हैं जग दृश्य
बस आगे बढ़ता जाता हूं।
सूरज की किरणों की हमने ,
जल पर चंचलता देखी।
लहराती जब कुमुदकलीतो ,
मै मन से लहराता हूँ।
फूलों की पंखुड़ियों पर जब,
बादल का जल गिरता है।
पवन खटोला ले मन का ,
तब बादल में उड़ जाता हूं।
एक सवेरे मनो बेग से ,
जब उतरा मैं उपवन में।
देख सुंदरी उपवन कि ,
मैं झाड़ी में छुप जाता हूं।
उसकी पलकों पर सोया था ,
धवल ओस का एक बूंद।
चली पवन फिर गिरी पंखुड़ी,
मैं पल-पल पछताता हूं।
काश मैं चुन लेता उसको,
प्रिय के अधरों के खातिर ।
गिरिधरा में लुप्त हुई वह,
मैं रिते हाथ रह जाता हूं।
© abdul qadir