...

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क़त्ल ...!?
लफ्ज़ो को लफ्ज़ो में छिपा कर
लफ्ज़ बनातीं हुं
अंधेरों को अंधेरों में गुज़र कर
तन्हाई पनपाती हुं
अश्रु से अश्रु की शिकायत कर
उनका उनसे मोल कराती हुं
नज़रों को नज़रों से तुलना कर
खामियों को नज़र अंदाज़ करना सिखाती हुं
सपनों को सपनों से मिलवा कर
एक नई सच्चाई तलाशती हुं
जज़्बातो से जज़्बातो को स्वीकार कर
एक नई पहचान तराशती हुं
इंतज़ार को इंतज़ार का इंतजार कर
एक नया एहसास का इंजहार कराती हुं
माफ़ी से माफी मांग कर
एक नयी गुनाहगार बनतीं हुं
खेल से खेल में शामिल हो कर
खेलने वालों के लिए एक नई खिलौना बनतीं हुं
प्रेम से प्रेम को त्याग कर
एक नया प्रेमी का निर्माण करती हुं
यादों को यादों से समेट कर
न जाने कितनी तिजोरियों का भोज रखती हुं
एहसासो को एहसासो से मार कर
न जाने खुद का कितनी बार क़त्ल करतीं हुं...

© HeerWrites