...

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प्रेम...! तुम कभी आए ही नहीं मेरे जीवन में
जानते हो न...?
क्योंकि तुम मुझ से विलग हुए ही नहीं कभी
मुझ से बाहर कभी गए ही नहीं...
भला ... आते कैसे.. .?
तुम मेरे अस्तित्व का हिस्सा नहीं
वरन् संपूर्ण अस्तित्व हो...

कभी माथे पर... कभी अधर
और कभी ग्रीवा...
से होकर नाभि तक जाती हुई पगडंडियों में...

तुम रुके रहे जीवन भर,
मेरे हृदय में पनपते तुम्हारे लिए मेरे मृदुल भावों में
बीज़ से बनते रहे तुम पूर्ण वृक्ष...
मेरी देह पर हुए
अब तक के सभी चुंबनों में...

हाँ कभी-कभी... मैंने नकारा भी तुम्हारे अस्तित्व को...
पर तुम ढीठ बन कर ठहरे रहे
मेरी स्वीकारोक्ति तक की
प्रतिक्षाओं में...
तुम कभी गए ही नही... मुझे छोड़ कर...

मेरे जीवनकाल में... तुम ने जिया है स्वंय को भी पूर्ण...
तुम उड़ान भरते रहे मेरे हृदय के नीले नभ पर...
तुम तैरते रहे सदैव...
मेरी पनीली... स्नेहिल आँखों की बावड़ी में
जैसे जलमुर्गियां... तैरती हैं
कभी पानी की सतह पर
कभी पानी के नीचे... गोते लगाते हुए...
जैसे कोई गोताखोर उघद्म करता है सच्चे मोतियों की तलाश में...
प्रेम...
तुम कभी आए ही नहीं मेरे जीवन में
तुम थे सदैव...! मेरे ही भीतर....!!
© मैं... शब्द-वंदिनी,मन-बंदिनी ✍️