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"रूपाली"
ये कहानी चित्तौड़गढ़ की रानी रूपाली की है। राजा वीरभद्र की सबसे छोटी रानी की। कहानी की शुरुआत चैताली नामक एक छोटे से राज्य से शुरू होती है। महराज दिशाराज और मेनका के चार पुत्र के पश्चात उनको एक सुंदर कन्या की प्राप्ति हुई, दोनों ने अति रूपमती अपनी पुत्री का नाम रूपाली रखा। रूपाली का अनिघ्ध सौन्दर्य बहुत ही मोहक था।शनै: शनै: समय गुजरता रहा और रूपाली ने अपने युवावस्था में कदम रखा। देखते ही देखते उसके रूप की चर्चा चैताली राज्य से बाहर भी होने लगी।
एक बार महराज वीरभद्र आखेट पर निकले तो भटकते भटकते काफी दूर निकल गये। हारकर उन्हें एक कृषक के घर शरणं लेनी पड़ी। सुबह भोर को ही वो अपने घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े। मार्ग पर ही उन्हें एक मंदिर दिखाई पड़ा तो वो दर्शन के लिए चल पड़े। मंदिर में राजकुमारी रूपाली भी अपनी सखियों के साथ आई थी। महराज ने जब रूपाली को देखा तो एक टक देखते ही रह गये,इधर रूपाली भी वीरभद्र जैसे सुदर्शन पुरुष को देखती रह गई।
महराज ने राजकुमारी को अपना परिचय दिया तो रूपाली ने भी खुद के बारे में महराज को बताया। महराज ने रूपाली के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया और वादा किया कि वो जल्द ही उनके माता-पिता से उनका हाथ मांगने आएंगे।
उस रात दोनों को नींद नहीं आई और दोनों आकाश के चंद्रमा में भी एक दूसरे का अक्स देखते रहे। लगभग एक हफ्ते बाद महराज रूपाली के पिता से उसका हाथ मांगने आए जिसे उसके पिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
महराज वीरभद्र ने धूमधाम के साथ रूपाली से विवाह कर लिया।जब दोनों चित्तौड़गढ़ पहुंचे तो रानी प्रेमावती और रानी गीतांजलि उनके स्वागत के लिए खड़ी थी। रानी प्रेमावती ने आरती के थाल सजाकर अपनी सबसे छोटी रानी का स्वागत किया।
उस रात्रि महराज ने अपनी प्रेयसी रानी को खूब प्यार और स्नेह किया। दूसरे दिन रूपाली अपनी दोनों बड़ी रानियों से मिलीं पता चला रानी प्रेमावती के पास महराज ने जाना ही छोड़ दिया था गीतांजलि रानी के आने के बाद और अब गीतांजलि ने भी दुःख प्रकट किया कि सम्भवतः महराज अब उनके पास आना भी छोड़ दे। रूपाली ने कहा नहीं दीदी ये सब अब नहीं होगा आखिर हम सब महराज की पत्नियां है कोई दासियां नहीं,आप सब चिन्तित न हो मैं महराज से बात करुंगी।
उस रात रूपाली ने महराज से बात करते हुए ये कहां महराज जितना मैं आपकी पत्नी हूं उतनी ही मेरी दीदी रानियां भी है। कल से एक हफ्ते तक आप प्रेमा दीदी के शयनकक्ष में सोएंगे फिर गीतांजलि दीदी के शयनकक्ष में फिर मेरे कक्ष में आएंगे। महराज अभी केवल रूपाली के प्रेम रस में डूबना चाहते थे मगर रूपाली की ज़िद के आगे उन्हें झुकना पड़ा। कुछ दिनों पश्चात तीनों रानियां फिर मिली और दोनों रानियों ने रूपाली का बहुत धन्यवाद किया। गीतांजलि ने भी प्रेमावती से माफी मांगी कि काश उसने भी ऐसा सोचा होता तो प्रेमावती ने इतना दुःख न सहना होता। दो सप्ताह पश्चात जब महराज वीरभद्र रूपाली के कक्ष में आएं तो उन्होंने रूपाली को अपने आगोश में समेट लिया, रूपाली ने भी महराज के चौड़े सीने पर अपना सर छुपा लिया।
अब से तीनों रानियां आपस में सखियों की भांति रहने लगी न कि सौतन के रूप में।
रूपाली की सूझबूझ ने तीनों के मध्य एक मजबूत सी डोर बांध दी थी (काल्पनिक कहानी)
समाप्त,लेखन समय-4:46- रविवार
दिनांक 23.6.24

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