भैया
मुम्बई, जैसे नाम मे ही भागा दौड़ी छुपी हो। तड़के सुबह से लेकर देर रात तक यहां आप लोगों को भागते हुए देख सकते हैं। किसी के पास समय ही नहीं है किसी और के लिए। मुंबईकर तो किसी को आराम से रुककर ठीक से देखते भी नहीं, मदद की तो खैर कौन ही सोचे। ये भावना पिछले 10 सालों में मेरे मन मे भी घर कर गयी। वो कहते हैं न जैसा देश वैसा भेष। लेकिन मन में किसी कोने में वो संस्कार अब भी किलकारी मार रहा था जिसमें कहा जाता था कि अगर दिन में किसी की मदद कर दी तो वो दिन सफल हो जाता है।
ऐसे ही दिन की आस लिए रोज की तरह आफिस को निकाल गया। दिन भर के तोड़ देने वाले कार्यक्रम के बाद शाम को आफिस से निकलते समय जरा भी ताकत शेष नहीं रह जाती।...
ऐसे ही दिन की आस लिए रोज की तरह आफिस को निकाल गया। दिन भर के तोड़ देने वाले कार्यक्रम के बाद शाम को आफिस से निकलते समय जरा भी ताकत शेष नहीं रह जाती।...