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न्यायदेव का न्याय
राजा न्यायदेव की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। जैसा नाम वैसा ही काम। आसपास के राज्यों से भी लोग जटिल से जटिल विवादों का फैसला करवाने राजा न्यायदेव के दरबार में आते थे और न्याय प्रिय राजन किसी आगंतुक को निराश नहीं लौटाते थे। सभी के साथ न्याय की पूरी कोशिश करते थे।

न्यायदेव विद्वानो का बड़ा आदर करते थे। उनके दरबार में एक से बढ़कर एक विद्वान राज दरबारी थे पर पंडित कोविद उनमें श्रेष्ठ थे। वे राजा के न्यायायिक सलाहकार भी थे।

एक दिन राजा न्यायदेव के दरबार में एक अद्भुत विवाद आया। दो स्त्रियां लीलावती और कलावती एक शिशु के लिए लड़ रही थी। दोनो का कहना था कि वह शिशु उसका है। उनका कोई साक्षी भी नहीं था। सैनिकों ने उन दोनों को पकड़कर शिशु सहित राजन के सम्मुख पेश किया था।

लीलावती : महाराज ! यह शिशु मेरा है। मेरी बहन कलावती ने उसे चुरा लिया है और अब धोखे से हथियाना चाहती है।

कलावती : नहीं महाराज। लीलावती झुठ बोलती है। यह शिशु मेरा है। लीलावती का कोई शिशु नहीं है इसलिए वह धोखे से मेरा शिशु हड़पना चाहती है। मेरे साथ न्याय करें महाराज।

विवाद सुन राजन का भी सिर चकराया। दोनों विवादी लीलावती व कलावती जुड़वा बहने थी और दोनों का रंग रुप एक दूजे से हूबहू मिलता था। शिशु का मुखड़ा भी उन दोनों से मिलता था। यह तय कर पाना बड़ा मुश्किल था कि वह शिशु किसका है। दरबार में सन्नाटा छा गया। दरबारी आपस में खुसुर फुसुर करने लगे। इससे पहले ऐसा जटिल विवाद कभी नहीं आया था। राजन ने दरबारियों की राय जाननी चाही पर सभी ने अपने हाथ खड़े कर दिए। किसी को कोई उपाय नहीं सुझा। हारकर राजन ने पंडित कोविद को विचार के लिए आमंत्रण भिजवाया। पंडित कोविद उस दिन छुट्टी पर थे। राजन का आमंत्रण पा तुरंत राज दरबार में हाजिर हुए। राजन ने पंडित कोविद को सारी बातें बताई और उनसे सलाह मांगा। कोविद गंभीर विचार मंथन में डूब गए। मामला इतना पेंचिदा था ही।

बहुत विचार मंथन के बाद पंडित कोविद ने सैनिक को तलवार लेकर आगे आने के लिए कहा। सभी की आंखें पंडित कोविद पर गड़ गई। सभी सोचने लगे कि कोविद आखिर फैसला कैसे करेंगे। कोविद ने सबकी तरफ देखा। फिर आंखों ही आंखों में राजन से अनुमति ली। राजन से अनुमति पाकर पंडित कोविद ने फैसला सुनाया, शिशु को सिर से पैर तक लंबाई में दो टूकड़े कर दिए जांए और दोनों स्त्रियों को एक एक टूकड़ा दे दिया जाए। सभी लोग आश्चर्य चकित रह गए। यह तो अन्याय है। महामंत्री दरबार में खड़े हो गए। हाथ जोड़कर राजन से विनती की, महाराज! घोर अनर्थ हो जाएगा। इसे कृपया रोकिये। राजन को पंडित कोविद पर भरोसा था। वे मौन साधे बैठे रहे। पंडित कोविद ने सैनिक को आदेश दिया, आज्ञा का पालन तुरंत किया जाय। सभी स्तब्ध हो गए। सैनिक म्यान से तलवार निकाल जैसे ही शिशु की तरफ बढ़ा, लीलावती चिल्ला उठी, दूहाई हो महाराज दूहाई हो। आप शिशु का जान बख्श दें। उसे कलावती को दे दें। वही उसकी मां हैं।

सभी के चेहरे पर खुशी छा गई पर पंडित कोविद गंभीर थे। उन्होंने कलावती से पूछा कि वह क्या कहना चाहती है ?

कलावती : महाराज की जय हो। लीलावती ठीक कहती हैं, यह शिशु मेरा है। इसे मुझे दे दिया जाए।

पंडित कोविद उठ खड़े हुए। उनका चेहरा तमतमा कर लाल हो गया। वे कभी ऐसे क्रोधित नहीं हुए थे। राजन को भी उनपर आश्चर्य हुआ, क्या हो गया इन्हें।

पंडित कोविद : झूठ बोलती है यह स्त्री, कलावती। यह बच्चा लीलावती का है। वही उसकी मां है।

राजन : पर पंडित कोविद, लीलावती तो खुद ही कह रही है कि यह शिशु कलावती का है और उसे दे दिया जाए।

पंडित कोविद : झुठ बोलती है लीलावती। वही उसकी असली मां है। असली मां कभी नहीं चाहेगी कि उसके शिशु को कोई नुकसान पहुंचे। अपने शिशु को मृत्यू से बचाने के लिए झूठ बोला है लीलावती ने जबकि कलावती जो उसकी मां नहीं है, मौन साधे खड़ी रही।

कलावती का भेद खुल चुका था। वह दया की भीख मांगने लगी।

राजा न्यायदेव ने शिशु को लीलावती को सौंपने का आदेश दिया और कलावती को एक वर्ष के कैद की सजा सुनाई। उन्होंने पंडित कोविद की भूरि भूरि प्रशंसा की और एक हजार स्वर्ण मुद्राएं भेंट में देने का आदेश दिया। पंडित कोविद ने उन स्वर्ण मुद्राओं को बाल कल्याण कोष के लिए राजन को दान कर दिया। पंडित कोविद का मान और बढ़ गया। सभी उनकी जय जयकार करने लगे। राजन भी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कोविद को महापंडित की उपाधि से नवाज दिया। राजा न्यायदेव की प्रसिद्धि और बढ़ गई।

© मृत्युंजय तारकेश्वर दूबे।

© Mreetyunjay @ Tarakeshwar Dubey