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तुझे शर्म नहीं आती?
जून का अंतिम महीना चल रहा था । मौसम विभाग ने आने वाले दो तीन दिनों के भीतर मानसून के आने की सम्भावना व्यक्त की थी । चिलचिलाती गर्मी से तो राहत मिल गई थी , परन्तु आकाश में छाये बादल वातावरण की गर्मी को बाहर नहीं जाने दे रहे थे । इस कारण उमस बहुत ज्यादा हो चली थी । तिस पर से नमी ने बुरा हाल कर रखा था । कूलर और ए.सी.का भी असर कम हो चला था।

शाम को जब नाश्ता करने के लिए ऑफिस से बाहर निकला तो इसी उमस भरी गर्मी से पाला पड़ा । पसीना सूखने का नाम हीं नहीं ले रहा था । चिपचिपाहट से परेशानी और बढ़ चली थी।

वो तो भला हो ए. सी. और काम के प्रेशर का , कि दिन कब बित जाता है , पता हीं नहीं चलता । काम करते करते शाम को भूख तो लग हीं जाती थी । घर से लाया हुआ खाना लंच में हीं निबट जाता था । लिहाजा पापी पेट की क्षुधा को आप्त करने के लिए बाहर निकलना हीं पड़ता था ।

सड़कों के किनारों पर मक्के के भुने हुए दाने बेचते हुए अनगिनत रेड़ी वाले मिल जाते थे । शाम का नाश्ता मक्के के भुने हुए दाने हीं हो चले । पेट और मन दोनों की क्षुधा को कुछ क्षण के लिए आप्त करने के लिए पर्याप्त थे।

ग्राहक को पास आते देखकर रेड़ी वालों में होड़ सी मच गयी । एक तो गर्मी ऊपर से रेड़ी वालों का शोर , शराबा । मै आगे बढ़ता हीं चला गया । थोड़ी दूर पर एक रेड़ी वाला बड़े शांत भाव से बैठा हुआ दिखाई पड़ा । उसे कोई हड़बड़ी नहीं थी शायद।

उसके पास के मक्के...