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गुस्ताख़ दिल part 2
नए घर में शिफ्ट हुए हमको एक सप्ताह हो चुका है, घर की चीज़ें उनकी सही जगह पर रखी जा चुकी हैं। घर के कामों में ही इतना वक्त चला गया कि गली के लोगों से अच्छे से मिलना का वक्त ही न मिल सका। और अब कल से हमारे स्कूल खुल रहे है। कहाँ हम आराम से 9 बजे तक उठा करते थे और कहाँ अब सुबह 5 बजे उठना पड़ेगा। स्कूल जाने की बात से हम तीनों ऐसे सदमे में आए हुए थे जैसे हमें किसी जंग पर भेजा जा रहा हो।
दिन का समय था, बाहर तेज़ धूप थी, हम तीनों खाने की मेज़ पर बैठे खाने का इंतज़ार कर रहे थे। थोड़ी देर में माँ रसोईघर से खाना लेकर बाहर आई, हमको परोसा और ख़ुद भी खाने के लिए बैठ गई। खाने में दाल, चावल, सब्ज़ी, आचार, पापड़, दही सब था और साथ में मांँ का ज्ञान भी जिसे हम हर एक निवाले के साथ चबाए और पचाए जा रहे थे।
"तुम्हारे भले के लिए ही कह रही हूंँ, वरना मुझे क्या पड़ी है, ज़िंदगी तुम्हारी है जो कहे करो।" हमारे उतरे हुए चहरों को देखकर मांँ बोली।
हमने एक दूसरे की ओर देखा फिर तीनों ने एक ही स्वर में "हम्म" किया।
"क्या हम? अच्छे से पढ़ोगे नहीं तो जीवन में कुछ कैसे करोगे? मैं ही पागल हूंँ जो तुम सबके साथ अपना दिमाग खपा रही हूंँ।" वो नाराज़ होते हुए बोली।
ये सिलसिला रोज़ का था। खाने का समय ही एक ऐसा समय होता था जब पूरा परिवार एक साथ बैठा होता, बिना फ़ोन, गेम, किताब और चित्रकारी के रंगों के, इसलिए अक्सर इसी समय पर हमारी क्लास लगा करती।
खाना खाकर मांँ की आज्ञा का पालन करते हुए हम अपने कमरे में गए और अपनी किताब देखने लगें। साथ ही अपनी यूनिफॉर्म का भी हालचाल पूछने लगे। दो महीने बाद हम उसके दर्शन कर रहे थे। मैं और शिल्पी 11th में और लड्डू 10th में है। मांँ चाहती थी कि हम साइंस या फिर कॉमर्स लें पर साइंस कॉमर्स जितने मेरे नंबर नहीं आए थे और शिल्पी उन बोरिंग सी किताबों के बोझ तले दबना नहीं चाहती थी सो दोनों ने ही आर्ट्स ले ली। जिससे मांँ तो बड़ी गुस्सा हुई पर पापा.. पापा की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। अब मांँ की आख़िरी उम्मीद लड्डू ही था सो अब सारा ज्ञान ज्यादातर उसे ही दिया जाता।

"रात हुई तो खाने पर फिर वही बात शुरु हो गई, सुबह जल्दी उठ जाना, नहा धोकर गली के मंदिर में हाथ जोड़ आना।" मांँ ने हमें खाना परोसते हुए बोला।
"कैसी नास्तिक बेटियांँ हैं आपकी!" इस बार पापा को सुनाया गया।
हम सर नीचे झुका कर हँसने लगे।
"अरे! अब इसमें मैं कहा से बीच में आ गया?"
"तुम कभी मंदिर जाते हो? तुम ही नास्तिक हो तो तुम्हारे बच्चे भी तो नास्तिक ही होंगे न?"
"पर तुम तो आस्तिक हो न। और ये तुम्हारे भी तो बच्चे हैं।"
"हांँ पर तीनों को बिगाड़ते तो आप ही हो।"
"सुनो! तुम तीनों कल से रोज़ सुबह जल्दी उठना और मंदिर होकर जाना। समझे।" बाबा अपना गला साफ़ सकते हुए थोड़ी भारी आवाज़ में बोले।
"हम्म.. जैसी की आपकी बातों का असर हो जायेगा इन पर। आपके कॉलेज के बच्चे नहीं हैं ये कि डर जाएं आप से। आपकी बनाई शैतानों की टोली है ये।" मांँ अपनी थाली में थाना निकालते हुए बोली। पिता जी मांँ को देखते रहे और हम उन पर हँसते रहे। खाने के साथ ये खट्टी मीठी बातें कितनी अच्छी लगती हैं न? दिन भर की थकान और दुनिया भर की परेशानियों को कैसे यूंँ मिनटों में हवा कर देती है।
खाना खाकर हम सोने चले गए, बाबा किताब पढ़ने और मांँ रशोई की सफाई करने।
सुबह हुई तो हम मांँ के उठाने से पहले ही उठ गए, अब पहले ही दिन सुबह सुबह डांँट थोड़ी खानी थी। थोड़ी सी योगा करके हम एक एक करके नहाने लगे। शिल्पी के बाल घुटनों तक लंबे हैं इसलिए पहले हमेशा वो ही नहाया करती।
"काट क्यों नहीं देती इनको, कितने लंबे हैं ये। "
"ऐ! मेरे बालों को कुछ नहीं कहना। मेरा पहला इश्क़ है ये।" हर सुबह उसके बाल बनाते समय उससे कहती तो उसका यही जवाब आता। न मेरा सवाल बदला न उसका जवाब। उसे बड़ा प्यार था अपने बालों से इतना शायद उसे मां बाबा से भी नहीं था।
उसकी दो चोटियांँ बनाकर मैं भी आईने खुद को देखने लगी। मुझे ये दो चोटी बनाना बिल्कुल नहीं पसंद, मुझे तो उसका हवा में आज़ादी के साथ लहराना और मुस्काना पसंद है इसलिए मैं अपने बालों को छोटा ही रखती। इतना छोटा की चोटी न बन सके। तैयार होकर हम दोनों पहले गली के मंदिर में गए फिर नाश्ता करा और फिर टीवी लगाकर बैठ गए, उधर लड्डू भी उठ गया था। उसका स्कूल हमारे स्कूल से थोड़ी सी दूरी पर था पर क्योंकि उसका स्कूल 8:30 तक खुला रहता था वो आराम से उठा। उठकर वो भी नहाया और फिर मंदिर गया फिर नाश्ता करने आया। दूसरी ओर पापा भी उठ गए थे वो भी अपने कमरे में तैयार हुए और हम सबकी तरह मंदिर हो आए। अब डांँट थोडी खानी थी सुबह सुबह मांँ से। 7:40 होते ही शिल्पी और मैं स्कूल चले गए, 8 बजे बाबा और 8:15 पर लड्डू।
छुट्टियों के बाद आज स्कूल में पहला दिन था। आहा!! ये चहल पहल, ये शोर गुल, ये मस्ती का माहौल, इनको कितना याद किया था हमने। अन्दर दाखिल होते ही हमने पहले अपनी क्लास ढूंँढी फिर अपने दोस्तों को। प्रेयर करके सब अपनी क्लासों में चले गए। मैं और शिल्पी एक साथ बैठे थे और हमारे कुछ दोस्त हमारे साथ ही थे उस कक्षा में। एक के बाद एक टीचर आते गए और हमें पढ़ाते गए और हम अपनी ही मस्ती में गुम थे। स्कूल का 5 6 घंटे का ये वक्त कितना लंबा होता है न? कटता ही नहीं है। 6था पीरियड था और हमारी पूरी क्लास उबासियाँ लिए जा रही थी। मानो अभी बिस्तर लगा कर सो जाएंगी यहीं ‌पर। टीचर क्या पढ़ा रहे थे सब सर के उपर से उड़ता जा रहा था। अच्छी बात ये थी कि हमारे स्कूल में लड़के नहीं थे, सो हम बिंदास होकर बैठा करते पर ये खुशी और आज़ादी भी ज्यादा दिन तक न टिक सकी। सुनने में आया था के कुछ पैसों और स्टाफ की कमी के कारण हमारा और हमारे पास वाला लड़को का स्कूल मर्ज हो रहा है। पर ये सिर्फ़ अफ़वा थी।
स्कूल से घर आए तो इतना थक गए कि पूछो मत, सो हम यूनिफॉर्म में ही सो गए। 1 घंटे बाद मम्मी ने उठाया तो कपड़े बदल कर खाना खाने बैठे और मम्मी को दिन भर करी शरारतों का हिसाब देने लगे। मांँ उनको सुनकर हँसने लगी। शाम को पापा आए तो उनके साथ दुकान में किताबें और कॉपियांँ भी लानी थी, सो हम लिस्ट बनाने लगे। जहांँ मैं और शिप्ली अगले तीन दिन तक अपनी किताबों और कॉपियों को लाने और उनको सजाने में लगे लगे थे वहीं लड्डू गली के बच्चों के साथ खेलने में लगा था। उसे ज़रा भी वक्त नहीं लगा था उनसे घुलने मिलने में।
शनिवार को नोटिस आया की हमने जो उड़ती हुई खबर सुनी थी आने वाले सोमवार को सच होने वाली है। यानी कि हमारा स्कूल और हमारे पास वाला स्कूल एक हो रहा है। यानी अगला हफ़्ता हम सबको एक दूसरे के साथ एडजस्ट करने में गुजरने वाला है। इसमें अच्छी बात बस ये थी की हमारा समय भी अब 8:30 का हो गया और अब से शिल्पी, लड्डू और मैं तीनों ही साथ में आया जाया करेंगे।
© pooja gaur
Pooja Gaur