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आधुनिक संतान
गर्मी अपने चरम पर थी,लोग बेचैनी से आकाश के तरफ देख रहे थे कि कही दूज के चाँद कि भांति बादल दिख जाए।मैं भी बरसात के दिनों की याद को ताजा कर रहा था कि अचानक सुनाई दी "बाबू जी...बाबू जी...बाबू...जी ए बेसहारा के कुछ खाए के चीज़ मिलित,भगवान भला करिहें"।मैंने सुना तो मेरा ध्यान बटा आवाज़ जानी पहचानी सी लग रही थी।मैं दौड़ कर दरवाजे पर गया,तो देखा,सत्तर-पचहत्तर वर्ष का एक आदमी बाल तो झड़ गया था,एक आध कहीं-कहीं रेत में पेड़ की तरह दिख रहा था,वह भी सफ़ेद,सूखे पेड़ की तरह।मुँह में दांत के न रहने से चेहरे का चमड़ा किसी बच्चे के झूले की तरह झूल रहा था,जो अक्सर सावन के महीने पेड़ पर लगते हैं।शरीर पर वस्त्र तो फटा पुराना ही,था पर पेट ध्यान देकर देखने पर भी नहीं दिख रहा था,ऐसा आभास हो रहा था कि पेट है ही नहीं और खाने की चीज़ मांग रहा है।अचानक मुझको देख कर सिर नीचे कर लिया।इतने में न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया "रामदेव..."!
रामदेव के तीन लड़के और दो लड़कियाँ थी।दोनों लड़कियों की शादी कर चुका था तथा तीनों लड़को को पढ़ा लिखा कर नौकरी लगवा चुका था साथ ही साथ तीनों की शादी भी कर चुका था।इसके लिए उसने अपने शरीर को मशीन मात्र समझता था।
इनकी दिनचर्या सुबह उठकर गंगा के किनारे दूसरों का कपड़ा साफ करना तथा उसको सुखाकर घर लाना सरसती का काम था जो रामदेव की पत्नी थी।रामदेव कपड़ा धोने के बाद नमक पी लेता जिससे उसकी भूख खत्म हो जाती और वह अपने दोनों गधों को लेकर ईट की ढुलाई करता था,उसी क्रम में आता और जो कुछ बना होता उससे कंट के नीचे उतार पुनः काम पर लग जाता।शाम होने पर गधों को सरसती के हवाले कर अपने रामलाल का रिक्सा रात को चलाता।एक दो घंटे के लिए ही बिस्तर पर लेतने की आदत सी पड़ गयी थी,रामदेव को।
इधर सरसती को तीनों लड़कों और दोनों लड़कियों को रात का कुछ बचा खिलाकर स्कूल भेजने के बाद नदी के किनारे जाकर कपड़ों को सुखाना तथा उसे घर-घर पहुंचाने का कार्य करती,बदले में जो अनाज मिलता उसे लेकर पकाती जिसे रामदेव तथा बच्चों के स्कूल से आने पर खिलाती ।शाम होते ही गधों को खिलाती,यही इनकी दिनचर्या थी।
धीरे-धीरे रमा बढ़ी होने लगी,जो रामदेव की सबसे बड़ी संतान थी।वह स्कूल घर आने पर अपनी माँ का हाथ भी बटाने लगी,जिससे रामदेव...