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कविताओं की डायरी
वो आज 18 बरस की हो चली थी। जन्मदिन था उसका । लेकिन आज उसे लग रहा था मानो ये दिन इस साल से गायब हो जाए कहीं ।उस ने अपनी कविताओं की डायरी जलाई थी आज । उसकी कविताओं में सिर्फ उस के अल्फाज़ और एहसास ही नहीं कई राज़ भी छुपे थे।
जब वो 8 साल की थी तभी से लिखा करती थी छुप छुप कर अपनी मां से , टीचर से , सहेलियों से ! इतना छुपा चुकी थी अपने कविताओं को कि मानो यूं लगता जैसे किसी मां ने अपने बच्चे को छुपाया हो नज़र लगने के डर से । उसकी हर कविता में होता था वो दर्द जो उसने पूरे दो दिन तक छुपाया था मां से , पापा से ।
दो दिन के उस जिस्मानी और दिलोदिमाग के दर्द ने उसके पूरे बचपन को तबाह कर दिया था। पूरे दो दिन तक उस ने छुपाए थे वे सारे निशान जिस्म के जो उस दरिंदे ने बंद कमरे में उस के बदन को नोच कर दिए थे। दो दिन बाद जब मां की तबियत कुछ ठीक हुई , जब मां तेज़ बुखार के बाद उठी और अपनी नन्हीं को नहलाने के लिए जैसे ही उसकी फ्रॉक उतारी वैसे ही समझ गई कि क्या हुआ था उसकी गुडिया के साथ । मां ने गले लगा लिया था उसे । फिर इलाज तो हुआ उसके शरीर का लेकिन मन ? वो डर? वो रात का अंधेरा होते ही उस का कांपना ! इसका इलाज मुमकिन नहीं था । आज भी नहीं है ।
बचपन बीता । वो हुई जवान । इश्क़ हुआ था उसे । अब वो कविताएं छुप छुप कर न लिखती । लिखती उसके पास बैठ कर । कई बार उस के आगोश में बैठे कोई गज़ल भी लिख दिया करती । अब उसकी कविताओं की डायरी को किसी की नज़र न लगनेवाली थी। अब लिखा करती वो प्रेम , इश्क़, मोहब्बत ! उस हमराज के प्यार ने उन तन मन के घावों को , उस दर्द को कुछ हल्का कर दिया था । सिर्फ तब तक जब तक उस मोहब्बत ने चाहा उस का बदन । अपने प्रेमी को उस ने इनकार कर दिया था इस जिस्मानी प्यार के लिए। उस इनकार के बाद उन कविताओं की डायरी को उस के प्रेमी ने मुंह पर दे मारा था उस के। उसे लगा मानो उसके बच्चों को उठा कर पटक दिया हो किसी ने ।
अपनी डायरी ले कर वो घर चली आई। आंसू जम चुके थे । वो डायरी अब फिर से छुपने को नया कोना ढूंढने लगी थी। उस रात उस गुड़िया ने सोच लिया था कि जो मेरी कविताओं को जलील कर सकता है वो मेरी क्या इज़्जत करेगा ।
दो दिन बाद जन्मदिन था गुड़िया का ! रातों को जागकर उस ने उस डायरी की सभी 186 कविताएं पढ़ डाली। वो जानती थी कि वो क्या करनेवाली थी। अपने जेहनी बच्चों को अपने दिल में उतारकर दो दिन बाद वो चीता जलानेवाली थी । वही किया उस ने ।
जन्मदिन की उस भोर , नदी किनारे जा कर वो डायरी जला दी थी उस ने । और उन अस्थियों को उसी नदी में विसर्जित भी कर चुकी थी ।
उस दिन के बाद उन सभी कविताओं को अपने रक्त में लिए जिंदगी जी रही है वो !
रिक्त हो चुकी है वो !
रिक्त हो चुकी है वो !
© preet