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मोहब्बत: एक कड़वा सच

सबसे अधिक वो प्रेम असफल हुआ जो एकनिष्ठ रहा,
सबसे अधिक वो भावनाएं छली गई जो निष्ठापूर्ण रही,
सबसे अधिक वो आंखें रोयीं जो आशा में रहीं
सबसे अधिक वो उम्मीदें ढही जो निश्छल रही।
प्रेम एक भावनात्मक एहसास है जो होता तो किसी और से है, पर खुद को इतना गहरा ले जाता है इतना गहरा ले जाता है कि उसके सामने हर एक चीज खुद से ऊंची दिखाई देती है|
जब इंसान किसी के प्रेम में खुद को हद से ज्यादा नीचे, गहरा ,अगम्य की ओर ले जाता है तो उसकी बराबरी करने के लिए कोई होता ही नहीं है। सिवाय खुद के,। ऐसे में इंसान का जिसके लिए प्रेम होता है वह खुद ब खुद खुदा बन जाता है,वह इतना ऊंचा बन जाता है कि सब कुछ वही दिखाई देता है|
प्रेम के लाखों उदाहरण जो हमारे सामने है उनमें राधा कृष्ण ,लैला मजनू ,हीर रांझा , जैसे अनगिनत उदाहरण है
इन सभी प्रेमियों की एक बात कॉमन है वह यह है कि ये सारे के सारे प्रेम अधूरे ही रहे।
शायद यह माना जाता है के प्रेम का अधूरापन है ही उसकी पूर्णता को भरता है अधूरेपन में जो उम्मीद आशा, निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति , समर्पण का आनंद है वो प्रेम के पूर्ण हो जाने में नही है ।
प्रेम तो रुक्मणी का भी कृष्ण से था, पूर्ण भी था पर रुक्मणी ने हमेशा एक राजा कृष्ण को देखा, एक जिम्मेदार कृष्ण को जो पूरी महाभारत के सूत्रधार थे, राधा के उस कनैहया को नही जो वट के पेड़ तले वासुरी की मधुर तान सुनाता है, नटखट है, माखन चुराता है, वो कनैहया तो बस राधा का ही हो सकता है क्योंकि वो अधूरा है।
मज़ा अधूरेपन का ही होता है|
दुनिया की हर चीज प्रेम से चलती है, दुनिया का हर रंग प्रेम में है।
प्रेम से ही हर रिश्ता है, माँ, बाप, भाई, बहन, बेटा ,बेटी जैसा हर रिश्ता प्रेम का होता है, प्रेम से होता है।
प्रेम की सबसे अच्छी चीज होती है उसका हमेशा युवा रहना, प्रेम अपने एहसास में हमेशा युवा रहता है, उम्र चाहे कोई भी हो प्रेम हमेशा युवाओ जैसा उत्साह लिए रहता है।
प्रेम में परिवर्तन शाश्वत रहता है, आज जो प्रेम माँ बाप से है, कल प्रेमी या पति से होगा परसो बच्चों से उसके बाद उनके बच्चों से।
एक ही इंसान में प्रेम की इंटेनसिटी हमेशा एक जैसी नही रहती।
उसकी वजह यह है कि प्रेम में किसी को पाने के बाद उसे जानने के लिए और भी तीव्रता होती है।
आजकल जिसे प्रेम बोला जाता है, मुझे उसके अर्थ पर आपत्ति है, आज का जमाने में डी पी देखकर सलेक्शन और रिजेक्शन होता है ,क्या ये वाकई प्रेम है?
प्रेम में इंसान खुद को खुदगर्ज नही समझता, वो महबूब को खुदा मानता है।
प्रेम में अथाह प्यास होती है उस अमृत को पाने की जिसका स्वाद लगने पर और पाने की लालसा होती है।
प्रेम का पोषण केयर है।ये केयर वो चिंता नही है जो खुद को चिता की तरह जलाती है, ये केयर वो सृजन की शक्ति है जो सवांरती है , खुद से ज्यादा अपने आराध्य को, महबूब को ,प्रेमी को या कहो अपने ही अक्स को।
ये सवारने की शक्ति शायद असीमित है इसीलिए अपूर्ण है, प्रेम में पड़ना खुद को प्रेममय कर लेना है। शब्दों में इसका बखान नही किया जा सकता, उसी तरह जैसे किसी गूंगे को गुड़ का स्वाद पता है पर वो बता नही सकता।
हमारे ग्रंथो में , महापुरुषों ने इसे व्याख्यायित करते हुए कहा है----
रहिमन बात अगम्य की कहन सुनन की नाहि,
जानत हैं सो कहत नहि ,कहत सो जानत नाहि।
प्रेम में घमण्ड नही होता , "मै" नही होता, अगर "मैं" आ गया तो तो फिर प्रेम नही होता।
प्रेम में घमण्ड और महबूब एकसाथ नही रहते। वो महबूब जिसे कोई प्रेमी मानता है तो कोई खुदा----
जब मैं था तब वो नही
अब वो है मैं नाहि,
प्रेम गली अति सांकरी
जामे दो न समाहि।
शायद सच है कि अगर इतना गहरा प्रेम हो जहां खुद तक का वजूद न रहे , बस महबूब ही रहे, वहां अधूरापन तो होगा ही, ये अधूरापन है खुद की खोज का, ऐसी खोज का जिसमें मिल जाना ही विछुड़ जाना है, शायद इसीलिए प्रेम अधूरा ही पूरा होता है।



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