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दशहरा... एक कथा भी
आज दशहरा सभी जगह बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है l रावण के पुतले में आग लगा कर उसे भस्म करके सभी उन्मादित होते है l यदि पूछा जाए तो असत्य पर सत्य की विजय के पर्व के रूप में इसे मनाया जाता है l रावण के प्रति सबकी भावनाओं को शब्दों की आवश्यकता नहीं है l
किंतु कितने लोगो को इसकी गूढता का भान है l रावण जैसा महाबलशाली, विद्वान, प्रकांड पंडित, महादेव का पुरोहित और उच्च कुल में जन्म लेने के बावजूद ऐसे अंत को प्राप्त हुआ l स्पष्ट है कि आपके कृत्य, आचार विचार और आपकी सोच ही आपके व्यक्तित्व को निर्धारित करती है l यही कारण अनादि काल तक रावण को हीन दृष्टि से देखने और उसके दुष्कर्मों और सोच को अग्नि में भस्म करने का कारण बना है l
हर कथा का एक दूसरा रूप भी होता है, जो उस कथा के प्रारूप को बदलने की क्षमता रखता है l परंतु अधिकांशतः किसी की भी उत्सुकता उसमें नहीं होती l
पौराणिक संदर्भों के अनुसार पुलत्स्य ऋषि ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक माने जाते हैं। इनकी गिनती सप्तऋषियों और प्रजापतियों में की जाती है। विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने पुलत्स्य ऋषि को पुराणों का ज्ञान मनुष्यों में प्रसारित करने का आदेश दिया था। पुलत्स्य के पुत्र विश्रवा ऋषि हुए, जो हविर्भू के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। विश्रवा ऋषि की एक पत्नी इलबिड़ा से कुबेर और कैकसी के गर्भ से रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा पैदा हुए थे। सुमाली विश्रवा के श्वसुर व रावण के नाना थे। विश्रवा की एक पत्नी माया भी थी, जिससे खर, दूषण और त्रिशिरा पैदा हुए थे और जिनका उल्लेख तुलसी की रामचरितमानस में मिलता है।
दो पौराणिक संदर्भ रावण की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए जरूरी हैं। एक कथा के अनुसार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु सनक, सनंदन आदि ऋषि बैकुंठ पधारे परंतु भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें प्रवेश देने से इंकार कर दिया। ऋषिगण अप्रसन्न हो गए और क्रोध में आकर जय-विजय को शाप दे दिया कि तुम राक्षस हो जाओ। जय-विजय ने प्रार्थना की व अपराध के लिए क्षमा माँगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। तब ऋषियों ने अपने शाप की तीव्रता कम की और कहा कि तीन जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना पड़ेगा और उसके बाद तुम पुनः इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। इसके साथ एक और शर्त थी कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना अनिवार्य होगा।
यह शाप राक्षसराज, लंकापति, दशानन रावण के जन्म की आदि गाथा है।
भगवान विष्णु के ये द्वारपाल पहले जन्म में हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्मे। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था और उसने पृथ्वी को उठाकर पाताललोक में पहुँचा दिया था। पृथ्वी की पवित्रता को बचाने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार धारण करना पड़ा था। भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का वध करने की वजह से हिरण्यकशिपु विष्णु विरोधी था और अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद को मरवाने के लिए भी उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। फिर भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का वध किया था। खंभे से नृसिंह भगवान का प्रकट होना ईश्वर की शाश्वत, सर्वव्यापी उपस्थिति का ही प्रमाण है।
त्रेतायुग में ये दोनों भाई रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और तीसरे जन्म में द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, तब ये दोनों शिशुपाल व दंतवक्त्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए थे। इन दोनों का ही वध भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हुआ।
प्रकांड पंडित एवं ज्ञाता होने के नाते रावण संभवतः यह जानता था कि श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु का अवतार हुआ है। छल से वैदेही का हरण करने के बावजूद उसने सीता को महल की अपेक्षा अशोक वाटिका में रखा था और उन पर कभी कुदृष्टि नहीं डाली थी l
रावण एक विचारक व दार्शनिक पुरुष था। वह आश्वस्त था कि यदि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भगवान हैं तो उनके हाथों मरकर उनके लोक में जाना उत्तम है l अंततः रावण का परास्त होना इस बात का शाश्वत प्रमाण है कि बुराइयों के कितने ही सिर हों, कितने ही रूप हों, सत्य की सदैव विजय होती है। विजयादशमी को सत्य की असत्य पर विजय के रूप मे इसीलिए देखा जाता है।
किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी है 🙏🙏


© * नैna *