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सच की चीख और झूठ का सन्नाटा
जब भी मैंने सच बोलने की कोशिश की, किसी न किसी ने मुझे चुप करा दिया। कभी किसी स्त्री ने, कभी किसी पुरुष ने। कभी मजबूरी ने, तो कभी गरीबी ने। कभी परिवार की मर्यादाओं ने, तो कभी रिश्तों के बंधनों ने। हर बार मेरा सच शब्द बनने से पहले ही दबा दिया गया।

सच को कहने और लिखने का साहस तो मुझमें है, लेकिन इसे सुनने का साहस इस दुनिया में शायद खत्म हो चुका है। लोगों ने झूठ को इतना स्वीकार कर लिया है कि अब वह उनकी जिंदगी का सच बन गया है। वे उस झूठ को गले लगाकर अपनी दुनिया रच चुके हैं। लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं कि यह झूठ धीरे-धीरे हमारे समाज को एक गहरे अंधकार में धकेल रहा है।

झूठ का यह कुहासा हर...