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सच्चाई लक्ष्मण रेखा की
आम बोल चाल की भाषा में जब वाद विवाद के दौरान कोई अपनी मर्यादा को लांघने लगता है, अपनी हदें पार करने लगता है तब प्रायः उसे लक्ष्मण रेखा नहीं पार करने की चेतावनी दी जाती है।

आखिर ये लक्ष्मण रेखा है क्या जिसके बारे में बार बार चर्चा की जाती है? आम बोल चाल की भाषा में जिस लक्ष्मण रेखा का इस्तेमाल बड़े धड़ल्ले से किया जाता है, आखिर में उसकी सच्चाई क्या है? इस कहानी की उत्पत्ति कहां से होती है? ये कहानी सच है भी या नहीं, आइए देखते हैं?

किदवंती के अनुसार जब प्रभु श्रीराम अपनी माता कैकयी की इक्छानुसार अपनी पत्नी सीता और अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास को गए तब रावण की बहन सुर्पनखा श्रीराम जी पर कामासक्त हो उनसे प्रणय निवेदन करने लगी।

जब श्रीराम जी ने उसका प्रणय निवेदन ये कहकर ठुकरा दिया कि वो अपनी पत्नी सीताजी के साथ रहते है तब वो लक्ष्मण जी के पास प्रणय निवेदन लेकर जा पहुंची। जब लक्ष्मण जी ने भी उसका प्रणय निवेदन ठुकरा दिया तब क्रुद्ध हो सुर्पनखा ने सीताजी को मारने का प्रयास किया । सीताजी की जान बचाने के लिए मजबूरन लक्ष्मण को सूर्पनखा के नाक काटने पड़े।

लक्ष्मण जी द्वारा घायल लिए जाने के बाद सूर्पनखा सर्वप्रथम राक्षस खर के पास पहुँचती है और अपने साथ हुई सारी घटनाओं का वर्णन करती है ।

सूर्पनखा के साथ हुए दुर्व्यवहार को जानने के बाद राक्षस खर अपने भाई दूषण के साथ मिलकर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी पर आक्रमण कर देता है ।

लेकिन सूर्पनखा की आशा के विपरीत राक्षस खर अपने भाई दूषण के साथ श्रीराम और लक्ष्मण जी के साथ युद्ध करते हुए मारा जाता है । अब सूर्पनखा के पास और कोई चारा नहीं बचता है सिवाए इसके कि वो अपने भाई रावण से सहायता मांगे ।

इसके बाद घायल सुर्पनखा रावण के पहुंच कर प्रतिशोध लेने को कहती है। रावण अपने मामा मरीच के साथ षडयंत्र रचता है। रावण का मामा मारीच सोने के मृग का वेश बनाकर वन में रह रहे श्रीराम , सीताजी और लक्ष्मण जी के पास पहुंचता है।

सीताजी उस सोने के जैसे दिखने वाले मृग पर मोहित हो श्रीराम जी से उसे पकड़ने को कहती है। सीताजी के जिद करने पर श्रीराम उस सोने के बने मारीच का पीछा करते करते जंगल में बहुत दूर निकल जाते हैं।

जब श्रीराम उस सोने के मृग बने रावण के मामा मारीच को वाण मारते हैं तो मरने से पहले मारीच जोर जोर से हे लक्ष्मण और हे सीते चिल्लाता हैं। ये आवाज सुनकर सीता लक्ष्मण जी को श्रीराम जी की सहायता हेतु जाने को कहती है।

लक्ष्मण जी शुरुआत में तो जाने को तैयार नहीं होते हैं, परंतु सीताजी के बार बार जिद करने पर वो जाने को मजबूर हो जाते हैं। लेकिन जाने से पहले वो कुटिया के चारो तरफ अपने मंत्र सिद्ध वाण से एक रेखा खींच देते हैं।

वो सीताजी को ये भी कहते हैं कि श्रीराम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में ये रेखा उनकी रक्षा करेगा। अगर वो उस रेखा से बाहर नहीं निकलती हैं तो वो बिल्कुल सुरक्षित रहेगी।

जब लक्ष्मण जी बाहर चले जाते हैं तो योजनानुसार रावण सीताजी के पास सन्यासी का वेश बनाकर भिक्षा मांगने पहुंचता है। सीताजी भिक्षा लेकर आती तो हैं लेकिन लक्ष्मण जी द्वारा खींची गई उस रेखा से बाहर नहीं निकलती।

ये देखकर सन्यासी बना रावण भिक्षा लेने से इंकार कर देता हैं। अंत में सीताजी लक्ष्मणजी द्वारा खींची गई उस लकीर के बाहर आ जाती है और उनका रावण द्वारा अपहरण कर लिया जाता है।

लक्ष्मण जी द्वारा सीताजी की रक्षा के लिए खींची गई उसी तथाकथित लकीर को आम बोल चाल की भाषा में लक्ष्मण रेखा के नाम से जाना जाता है। इस कथा के अनुसार लक्ष्मण जी ने सीताजी की रक्षा के लिए जो लकीर खींच दी थी, अगर वो उसका उल्लंघन नहीं करती तो वो रावण द्वारा अपहृत नहीं की जाती।

महर्षि वाल्मिकी द्वारा रचित रामायण को तथ्यात्मक प्रस्तुतिकरण के संबंध में सबसे अधिक प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता हैं। आइए देखते हैं महर्षि वाल्मिकी द्वारा रचित वाल्मिकी रामायण में इस तथ्य को कैसे उल्लेखित किया गया है। वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड के पञ्चचत्वारिंशः सर्गः ( अर्थात 45 वें भाग) में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है।

इस घटना की शुरुआत मारीच के श्रीराम जी द्वारा वाण से घायल करने और मरने से पहले मारीच द्वारा सीता और लक्ष्मण को पुकारने और सीता द्वारा इस पुकार को सुनकर घबड़ाने से शुरू होती है। इसका वर्णन कुछ इस प्रकार से शुरू होता है।

जब जानकी जी ने उस वन में पति के कण्ठस्वर के सदृश स्वर में आर्त्तनाद सुना, तब वे लक्ष्मण से बोलीं कि, जा कर तुम श्रीराम चन्द्र जी को देखो तो ॥ १ ॥

न हि से हृदयं स्थाने जीवावतिष्ठते ।
क्रोशतः परमार्तस्य श्रुतः शब्दो मया भृशम् ॥ २ ॥

इस समय मेरा जी ठिकाने नहीं, चित्त न जाने कैसा हो रहा है , क्योंकि मैंने परम पीड़ित और अत्यन्त चिल्लाते हुए श्रीराम चन्द्र जी का शब्द सुना है ॥ २ ॥

आक्रन्दमानं तु वने भ्रातरं त्रातुमर्हसि ।
तं क्षिप्रमभिधाव त्वं भ्रातरं शरणैषिणम् ॥३॥

अतः तुम वन में जा...