...

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मन से मन का बंधन
कहतें हैं..
बंधनों के कई रूप होते हैं...

सात फेरों का बंधन,
सात वचनों का बंधन,
सात जन्मों का बंधन,
जन्मों जन्मों का बंधन,
किसी के मंगल सूत्र का बंधन,
किसी के कंगन का बंधन,
किसी के पाजेब का बंधन,
अर्धांगिनी होने का बंधन,
जीवनसंगिनी का बंधन,
रस्मों-रिवाज़ों का बंधन...

पर एक बंधन और भी होता है.......
मन से मन का बंधन...!!!


रेशम सा,
बहतें नीर सा,
हवाओं में बहता सा,
महकते इत्र सा,
बांधे एक ही डोर से डोर को,
मन से मन को,
हर भीड़ मे तलाशती एक दूसरें को,
उस नाम को,
उसके लिखे शब्दों को यही तो है मन से मन का बन्धन!!


देखते, सोचते, पुकारते, सुनते,,
जाने कब कैसे
खुद की आत्मा, मन और मौन...मिल से ज़ातें हैं.
बंध से जाते हैं
और फिर प्रेम हो ज़ाता है
बस हो ज़ाता है एक दूसरें को मन से मन को

शायद इस बंधन मे कोई
अग्नि साक्षी नहीं,
हवन नहीं,
कोई सात वचन नहीं,
पर सबसे निकट है ये बंधन....!!

अलग है य़े न बांधने की चाहत
न छूटने का
मन बस ऐसा है य़े मन से मन का बंधन !!

सुखमय या कितना भी दुखदायी क्यों न हो ये मन का बंधन !!
लेकिन मन को आत्मीय आंनदित करता है ये मन का बंधन !!


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© कुन्दन प्रीत