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गुस्ताख़ दिल Part 3
आज इतवार था, छुट्टी का दिन। नाश्ता करते ही हम तीनों गली के बच्चों से मिलने चले गए। अच्छी बात ये थी कि लड्डू गली के लोगों को बहुत अच्छे से जानता था। घर से बाहर निकलते ही उसने एक एक करके गली के बच्चों और गली के नियमों से परिचित करवाना शुरु किया।
"हाय, ये मेरी बहनें हैं: शिल्पी, नीति।" उसने हमारे और इशारा करते हुए बाकियों से कहा। हमने भी एक मुस्कान बिखेरते हुए हाय किया।
"ये शालिनी, ये अरुण, ये विनय, ये दिव्या, ये रचना, ये प्रियंका..." वो एक एक करके हमे सबका नाम बताने लगा फिर उनके घर और उनकी कुछ खूबियां भी बताने लगा। इतने सारे लोगों का नाम याद करना थोड़ा मुश्किल है पर नामुमकिन भी नहीं। फिर उसने नियम बताने शुरु किए, " देखो (उसने एक लाइन की तरफ इशारा करते हुए कहा।) इस लाइन को कभी पार नहीं करना है और न ही कभी उधर के बच्चों से बात करनी है। अगर इधर का कोई सामान उधर गया तो वो उनका हो जाएगा और उनका कुछ इधर आया तो वो हमारा।"
"पर ऐसा क्यों?" शिल्पी ने पूछा।
"क्यों उधर मुस्लिम लोग रहते हैं। इस लगी का एक नियम है की गली की लेफ्ट साइड हिंदुओं की और राइट साइड मुसलमानों की है।"
"खेलने का कोई भी सामान अगर तुमसे टूटता या खोता है तो हमको या तो पैसे भरने होंगे या भी नए खरीद कर लाने होंगे। हर संडे एक मीटिंग होती है जिसमें एक लीडर चुना जाता है। और इस हफ़्ते का लीडर मैं हूं इसलिए तुम्हें मेरी हर बात माननी होगी। समझे।" वो बिलकुल की तरह समझा रहा था हमें। हमने हामी में सर भरा और उनके साथ फिर खेलने लग गए।
लाइन गली के बीचों बीच खींची थी मंदिर से लेकर गली के अंत तक। एक तरफ़ हम सभी अपना खेल खेल रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ हमारे घर के ठीक सामने के घर की सीढ़ियों पर बैठा एक लड़का हमें टुकुर टुकुर घूरे जा रहा...