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यकीन पर ही दुनिया कायम है...।
सफर के दौरान एक महाशय से मुलाकात हुई। उनकी शक्ल कुछ साधु - महात्माओं जैसी थी पर इस बार मैंने उनके बारे में किसी भी प्रकार की कोई गलत धारणा नहीं बनाई थी क्योंकि अब नजरिया बदल चुका था और सोचने का तरीका भी। मेरी खामोशी का खण्डन करते हुए महाशय जी ने पूंछा की "मैं कहां से आ रही हूं?" कुछ क्षण रुकने के पश्चात मैंने उन्हें बताया कि कल मेरी परीक्षा है। किसकी ये भी उन्हें बताया। जिनकी बात मैंने उनसे की थी उन्हें इसके बारे में काफी कुछ पता था। उन्होंने मेरे साथ जानकारी सांझा की। यों तो अनजान लोगों से बात करना शायद हम पसंद ना करे पर जब सफर लंबा हो तो मूक बने रहना कहां तक सही है।
चलते हुए उन्होंने कहा की वे अभी ज्यादा उम्र के नहीं है। फिर मैंने उनसे पूंछ लिया। फिर ये साधु जैसा वेश क्यों? उन्होंने कहा की वे कोई साधु या सन्यासी नहीं है, एक नौजवान इंसान है। मुझे तो अब भी कुछ समझ न आया था। फिर ये सब क्या था? जो में देख रही हूं।
उन्होंने बताया की उनकी बहन जो कई सालो से उनसे बात नहीं कर रही थी, क्यों? मैंने जानना नहीं चाहा। किसी के निजी जीवन के बारे में जानने का हमें कोई हक नहीं। आगे उन्होंने कहना जारी रखा की जब- तक उनकी बहन उनसे बात नहीं करती तब- तक वे
इसी वेश में रहेंगे जैसे कोई मन्नत मांगी हो, जिसके पूरी हो जाने की आस थी।
उनकी बात सुनकर लगा किसी को रिश्तों की कितनी फिकर है।
या दूसरा पहलू ये भी हो सकता है की फिकर होती तो शायद ये नौबत न आती।
खैर! जो भी हों। सच क्या था मुझे नहीं पता। हां इतना जरूर था की रिश्तों के लिए स्नेह बरकरार था।
यह देखकर खुशी हुई।
मैंने उनसे कहा की मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगी की आप अपनी बहन से जल्द मिले।
उनका गंतव्य स्थान पहले आ चुका था। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और मुझे सफल होने का आशीर्वाद दिया और कहीं औझल हो गए।
कहने का तात्पर्य हैं की एक अनजान व्यक्ति का, जिससे दूर -दूर तक कोई नाता नहीं, मेरी स्थिति का पता नहीं फिर भी एक विश्वास दिखाया उसी तरह का जिस तरह का मैंने दिखाया था उनकी बहन के प्रति।
इस कहानी का उद्देश्य महज यही प्रकट करना है की जीवन के इस सफर में हम मुसाफ़िर है जहां सुख और दुःख दोनों मिलेंगे। तय हमें करना है की हम किसके साथ क्या बांटना चाहते है।
क्योंकि विश्वास पर ही, ये दुनिया कायम है।
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