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कटिहार टॉकीज
कटिहार टॉकीज

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साढ़े तीस लाख से ऊपर लोगों को अपने में समेटे जिला कटिहार एक हंसता - खेलता और हमेशा गमगमाने वाला जिला रहा है । आपदा हो तो त्रासदी , इस जिले को कोई फर्क नहीं पड़ता । सबकुछ झेल लेने का सामर्थ्य लिए यह शहर सदा ही मुस्कुराया है । ऐसे मुस्कुराने की तो हजार वजहें हो सकती हैं , लेकिन यहां चार वजह साफ - साफ खड़ी दिख जाया करती थी । आप सोच रहे होंगे कि भला वो चार वजह क्या हो सकती है और भला उनमें ऐसा कौन सा हुनर है जो पूरे तीस लाख को मुस्कुराने का सबब दे जाता है ! जी हां , इन चार वजहों ने कई दशकों से पूरे जिले को महज मुस्कुराहट ही नहीं , तालियों की गरगराहट , सीटियों की सनसनाहट और ठुमकों की ठुमकाहट से भी बखूबी नवाजे रखा है । औरों के लिए ये चार वजह महज ईंट - गारे का बना ढांचा मात्र होगा , हमारे लिए तो ये जिंदा आदमी से ज्यादा जिंदा हुआ करते थे । ये चारों ठीक बिन ब्याहे उस चाचा की तरह थे जिसने हमें अपनी पीठ पर चढ़ा - चढ़ाकर किस्सागोई भी करवाई और साथ में चिनिया बादाम का देशी ठोंगा भी हमारे हाथों में थमाया था । जी हां , ये चारों बिन ब्याह चाचा की ही तरह तो थे जिसका भरपूर इस्तेमाल हम सबने बराबर किया है और बदले में उसे मिला भी तो जर्जर शरीर और वक़्त के थपेड़े ।

उन दिनों फिल्में देखना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी । अवयस्क लड़कों का फिल्म देखना उसकी बर्बादी के सारे रास्तों का खुल जाना माना जाता था । फिलमचियों को तो अव्वल दर्जे का आवारा और हाथ से निकला लड़का समझा जाता था । जी हां , ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की ही बात हो रही है । रंगीन फिल्मों की बात तो बिल्कुल ही बेमानी होगी । जिसे रंगीन फिल्म देखते पकड़ा जाता उसे बेरंग मानकर कुल के नाशक की उपाधि दे दी जाती और वह नक्सली हो जाने को बाध्य हो जाता । मॉर्निंग शो केवल बुड्ढों के लिए ही आरक्षित जान पड़ता था । जवान और वयस्क लोग दूसरे जिले में जाकर ही इसका लुफ्त उठा पाते और यह मौका केवल किसी की बारात में ही जाने पर मिला करता । उन दिनों जिला पार करना उठना ही दुर्गम था जितना आज बिना वीजा के अमेरिका जाना । इतनी जद्दोजहद के बाद भी क्या लुफ्त मिलता था यह तो गुप्त ही रहे तो उचित होगा या फिर गूंगे का गुड़ ही रहे तो ठीक है ।

इस शानदार जिले ने हमें कुल चार ही तो सिनेमा हॉल का नायाब तोहफा दे रखा था जिसे हम मुस्कुराने की चार वजह कह रहे हैं । इसे चार हॉल नहीं बल्कि इसे शहर के उत्सव की चार स्तंभ कहें तो ज्यादा उचित होगा । हां, फिल्म देखना किसी उत्सव से काम तो नहीं हुआ करता था उन दिनों । रोमांच और कौतूहल भरा उत्सव! ये चार सिनेमा हॉल हमारे लिए चारों धाम ही हुआ करता था जिसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की अनुभूति हो जाया करती थी ।

अगर बात रैंकिंग की की जाए तो पहला स्थान " बसंत टॉकीज " का हमेशा रहा है । इसकी लोकेशन और फिल्मों का चयन इसकी रैंकिंग को बनाए रखने में काफी हद तक जिम्मेदार था । थाने के पास की लोकेशन इसकी सुरक्षित होने का अहसास दिला ही दिया करती थी । ये बात अलग है कि टिकटों की ब्लैकिंग भले ही खुलेआम थी फिर भी थाने का होना ही सुरक्षा की गारंटी थी । शायद यही कारण था कि सबसे साभ्रांत सिनेमा हाल का दर्जा इसने बिना किसी प्रयास के ले रखा था । शहीद चौक पर गर्व से खड़े इस सिनेमा हॉल ने इस शहर को जितनी खुशी और हर्षोल्लास दी है , शायद ही किसी और चीज ने दी होगी । यह सिनेमा हॉल अकेले नहीं खड़ा था । इसने न जाने कितने ऐसे दुकानों को अपनी छाव में पोषित किया था जिसकी वजह से न जाने कितने ही घरों की रोटियां सेंकी जाती थीं । झालमुढ़ी वाला , चिनिया बादाम वाला , घुप चुप वाला , समोसे वाला , चाट वाला , पान - बीड़ी - सिगरेट वाला और भी न जाने...