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शायद
शायद
यूँ ही खो जाता है मन, विगत स्मृतियों में,
सोचता रहता है अक्सर आगत खुशियों में।

आख़िर था क्या? हुआ हूँ क्या? और क्या हो जाऊँगा,
इन स्मृतियों में, स्मृतियों सा हो, यूँ विस्मृत खो जाऊँगा।

क्या यही अलंकार रहा था, क्या जीवन आधार रहा था,
किसके लिए, किस चाह में, हृदय व्यथित इस प्रकार रहा।

सोचता तो हूँ किन्तु शायद, उत्तर कभी पाऊँगा,
प्रश्नों में करता विचरण, प्रश्न ही बन जाऊँगा।

क्या देना था, क्या दिया स्वयं को, अब और अभी क्या बाकी,
निर्मल जीवन, हो विकार-युक्त जाने कब बन बैठा संतापी।

जल रहा है पल-पल, तिल-तिल, धीरे-धीरे जल ही जाऊँगा,
जीवन अहो! किस हेतु हुआ, शायद कभी समझ पाऊँगा।

कैसी वेदना लेकर फिरता, किस कारण नैराश्य अहो!
हृदय-विकल किन्तु फिर कैसे, रह पाए मुस्कान कहो।

लेकिन सोचा तो है इक़ दिन, मैं जी भर मुस्कुराऊँगा,
या स्मृतियों में, स्मृतियों सा हो, यूँ विस्मृत हो जाऊँगा।

हाथ थाम जो चली दो क़दम, और किनारा कर बैठी,
मेरी जिंदगी, मेरी जिंदगी में, जिंदगी बेसहारा कर बैठी।

सोचा है कभी फुरसत से, इसको कर मनुहार मनाऊँगा,
स्वप्न्न है बिखरे, तो क्या फिर मैं, स्वप्न्न नए सजाऊँगा।

तुम न समझो के टूट गया हूँ, आस से अपनी छूट गया हूँ,
रूठी है बस हमसे, न समझो मैं इससे रूठ गया हूँ।

जैसे भी समझ सकेगी हमको, कर प्रयत्न मैं समझाऊँगा,
या फिर स्मृतियों में, स्मृतियों सा हो, यूँ विस्मृत हो जाऊँगा।
#शायद
© विवेकपाठक