...

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बंधन चाहत का
अरे ये क्या,इतनी जल्दी सात बज गए। साढ़े सात तक तो,खाना तैयार करना है। मैं तेजी से फ्रिज की ओर बढ़ी,ओर सब्ज़ी निकाल कर,काटने लगी ।
आज मन बहुत खराब था,वजह कुछ भी नहीं थी । पता नहीं क्यूँ,आज तुम्हारा ख़याल आया।
कभी मिली भी नहीं तुमसे,न कभी बात ही हो पाई है। फिर भी,एक अलग ही जगह है,दिल में तुम्हारे लिए।एक हमदर्द के रूप में ही देखा है तुम्हें । नहीं जानती,कौन हो तुम? एक अंजान सा,अहसास है हमारे बीच । लगा कि तुम आ जाओ तो,तुम्हारे कांधे पर सिर रख कर,जी भरके रो लूँ ।
जानती हूँ,कभी मिल नही पाऊँगी तुमसे। तुम तो मेरी इन बातों से अंजान हो। मैने कभी अपने जज़्बात तुम्हें नहीं बताए ।ये एक अंजान सा रिश्ता है हमारे बीच,जिसे चाहत के बंधन ने बांधा है।
शिवानी,क्या हुआ?
कुछ भी तो नहीं ?
ये आंखो में आँसू?
अरे ,ये तो सब्ज़ी की वजह से,कहते हुए मैने आँसू पोंछ लिए।
अरे बुद्धू,प्याज काटने से तो आँसू सुने थे,पर आलू,गोभी काटने पर कैसे आँसू ?
बस ऐसे ही। और फिर तेजी से मैं रसोई की तरफ़ चल दी। खाना जो बनाना था ।
© Shivani Singh