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"गुलाब का एक बेरंग" अंतिम भाग-6 लेखक- मनी मिश्रा
,..आगे

....शायद तुम्हारा मिर्जा हो! "इतना कहकर वह एक बार फिर दरवाजे की ओर देखने लगा था, एक खामोशी के साथ" ।मैंने महसूस किया ,वह जिस खामोशी से दरवाजे को देख रहा था।" वहां कुछ ऐसा जरूर था। जिसे वह तो देख पा रहा था ।
,...लेकिन मैं नहीं! मैंने उससे हैरानी से पूछा" तुम्हें कैसे पता कि वहां कोई है ?
उसने कहा" तुम जाओ तो सही ,वहां कोई ना कोई जरूर है ,जो तुम्हारा ही इंतजार कर रहा है और वह बेहद तकलीफ में है। बस तुम्हें आकर बेवजह टोकना नहीं चाहता।
वह आगे कुछ भी कहता उससे पहले ही मैंने कहा" अच्छा ठीक है ,ठीक है "मैं जाती हूं, लेकिन जब मैं लौटू तो तुम मेरे साथ पुलिस स्टेशन जरूर चलोगे! "वादा करो "
उसने कुछ नहीं कहा बस चुपचाप कोहरे के उस पार देखता रहा ।मैंने देखा,.. उसकी आंखों से आंसू की कुछ बूंदे गुलाब के उन फूलों पर आ गिरे थे जो उसकी गोद मे पड़े थे । मैं कुछ देर तक उसके जवाब का इंतजार करती रही।फिर उसे चुपचाप यूँ बैठा देख। मैंने उस वक्त और कुछ भी कहना ,उचित नहीं समझा ।इसलिए बिना कुछ कहे ही पीछे मुड़ गई थी ।
,.....मैं कुछ कदम आगे बढ़ी ही थी कि उसने मुझे पुकारा ..... " मेहर "
यह नाम उसके लिए कितना अपना सा था। मैं नहीं जानती।लेकिन उसने मुझे जिस तरफ पुकारा था ....."ऐसा लगा मानो वह सदियों से मुझे जानता हो"।उस पल मैंने एक नजरभर उसे देखना चाहा था........

,,,,,,,,,.मैं उससे महज चार कदम ही दूर खड़ी थी लेकिन मैं बेंच पर बैठी"...