“मंशा”– एक लघुकथा
निरुत्साही दीर्घा आज फिर से हमेशा के जैसे सुबह सुबह अपने बेटे अवंत और पति को डांटे जा रही थी। पूरा मोहल्ला इस गरमागर्म वार्तालाप का लुफ्त उठा रहा था। दैनिक क्रिया को पूर्ण करते हुए अवंत अपने पापा के साथ कही निकल पड़ता है और दीर्घा काम करते करते अपनी किस्मत को कोसे जा रही थी,“ हाय रे मेरे फूटे भाग!..मिल मिल कर इससे बुरा और क्या ही मिल सकता था! बेटा सुनता नहीं और इसका बाप सुनने देता नही..हरी..हरी...अब तो तू ही ये नैया पार करवा! ”
कपड़ो को और ज़ोर देके घिसते घिसते दीर्घा की आंखे कपड़ो के बदले पुरानी यादें दिखानी लगी और फिर से दीर्घा बड़बड़ाने लगी,“ हे हरि! और कुछ ना सही, रहने के लिए एक घर ही अच्छा दे देता। इस भाड़े की खोली में रहते रहते और नीचे सोते सोते बसेबसाये सारे अरमान झकझोर हो गए!” थोड़ा विराम लेके फिर से दीर्घा बोल उठी,“ हरी! तू तो सबकी मुराद पूरी करता है, बस मैं ही..!! ...इतना भी कहा कुछ मांगा मेने तुमसे? अब आखिरी बार मांग रही हू, और कुछ ना सही, मुझे गद्दे वाले पलंग पर सोने का एक मौका तो दे ही सकता है तू।”
दीर्घा की आंखे चमक से भर जाती है और मानो हरी साक्षात आ खड़े हो उस तरह अपना बोलना जारी रखती है,“ जब से ब्याह के आई हु तब से एक बार भी चैन से उस गद्दे वाले पलंग पर लेटी नहीं। पहले सास–ससुर फिर जेठ– जेठानी , अब अवंत के पापा और कोई न हो तो लाड साहब अवंत तो है ही! गद्दा और पलंग दोनो मेरे मायके से आए है बावजूद मेरा अभी तक उसपे हक नही जमा! ”
“नही हरी, अब तू ये मत समझना की मुझे कुछ ज्यादा चाहिए, मैं तो बस एक बार जमीन के बदले उस गद्दे वाले पलंग पर सोना चाहती हू...अब इसमें क्या ज्यादा मांग लिया मेने!” इतना बोलते बोलते दीर्घा के आगे के शब्दों की आवाज़ पानी के नल और थापी की आवाज के बीच में लुप्त होने लगती है।
दुपहर के दो बजे सब काम धाम करके खाना खाने बैठी दीर्घा का फोन ठनक उठा। दीर्घा ने फोन उठाया और दूसरी तरफ से किसी रिश्तेदार की आवाज़ आई, “भाभीजी, आप जल्दी से सिटी हॉस्पिटल आ जाइए...भैया और अवंत का एक्सीडेंट हो गया और दोनो बुरी तरह से जख्मी हो गए और डॉक्टर ने मना कर दिया है!” यकायक दीर्घा का आसमान और जमीन हिल जाते है और रोते हुए किसी तरह से हॉस्पिटल को और भागने लगती है...लेकिन दीर्घा को पहुंचने में बहुत देर हो जाती है! दीर्घा का पति और अवंत पहले ही हरिघर जा चुके थे।
यथासंभव, दीर्घा का वक्त से पहुंचना भी कोनसा यम का आमंत्रण झूकला सकता था!
शास्त्रों के अनुसार , दीर्घा के पति और अवंत की दाह संस्कार की क्रिया और बाकी बचे सभी कर्मकांड हो चुके थे और सभी अतिथि एक के बाद एक आ जा रहे थे।
दोनो के गुजरे अब कई दिन हो चुके थे। दीर्घा अभी तक इस हादसे से बाहर नहीं आ पाई, आती भी कैसे! सहसा थके हुए बदन के साथ वोह उसी गद्दे वाले पलंग पर जा पसरी और उसका माथा ठनका! लेटने के तुरंत साथ ही फिर से पलंग पर बैठ खड़ी हुई और हरी की तस्वीर के सम्मुख आक्रोश के साथ देखने लगी और उसके मुंह से निकल पड़ा ,“ हरी, ऐसे मंशा पूरी करता है तू?”
*समाप्त*
–वैमक (psycho)
( कई वक्त से ये कहानी सोच रही थी, पर अंत अच्छा न होने की वजह से लिखी ही नही गई! आज लिख दिया...इसे बस एक कल्पना मात्र समझ कर आगे बढ़े! श्री हरि ! )
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© psycho
कपड़ो को और ज़ोर देके घिसते घिसते दीर्घा की आंखे कपड़ो के बदले पुरानी यादें दिखानी लगी और फिर से दीर्घा बड़बड़ाने लगी,“ हे हरि! और कुछ ना सही, रहने के लिए एक घर ही अच्छा दे देता। इस भाड़े की खोली में रहते रहते और नीचे सोते सोते बसेबसाये सारे अरमान झकझोर हो गए!” थोड़ा विराम लेके फिर से दीर्घा बोल उठी,“ हरी! तू तो सबकी मुराद पूरी करता है, बस मैं ही..!! ...इतना भी कहा कुछ मांगा मेने तुमसे? अब आखिरी बार मांग रही हू, और कुछ ना सही, मुझे गद्दे वाले पलंग पर सोने का एक मौका तो दे ही सकता है तू।”
दीर्घा की आंखे चमक से भर जाती है और मानो हरी साक्षात आ खड़े हो उस तरह अपना बोलना जारी रखती है,“ जब से ब्याह के आई हु तब से एक बार भी चैन से उस गद्दे वाले पलंग पर लेटी नहीं। पहले सास–ससुर फिर जेठ– जेठानी , अब अवंत के पापा और कोई न हो तो लाड साहब अवंत तो है ही! गद्दा और पलंग दोनो मेरे मायके से आए है बावजूद मेरा अभी तक उसपे हक नही जमा! ”
“नही हरी, अब तू ये मत समझना की मुझे कुछ ज्यादा चाहिए, मैं तो बस एक बार जमीन के बदले उस गद्दे वाले पलंग पर सोना चाहती हू...अब इसमें क्या ज्यादा मांग लिया मेने!” इतना बोलते बोलते दीर्घा के आगे के शब्दों की आवाज़ पानी के नल और थापी की आवाज के बीच में लुप्त होने लगती है।
दुपहर के दो बजे सब काम धाम करके खाना खाने बैठी दीर्घा का फोन ठनक उठा। दीर्घा ने फोन उठाया और दूसरी तरफ से किसी रिश्तेदार की आवाज़ आई, “भाभीजी, आप जल्दी से सिटी हॉस्पिटल आ जाइए...भैया और अवंत का एक्सीडेंट हो गया और दोनो बुरी तरह से जख्मी हो गए और डॉक्टर ने मना कर दिया है!” यकायक दीर्घा का आसमान और जमीन हिल जाते है और रोते हुए किसी तरह से हॉस्पिटल को और भागने लगती है...लेकिन दीर्घा को पहुंचने में बहुत देर हो जाती है! दीर्घा का पति और अवंत पहले ही हरिघर जा चुके थे।
यथासंभव, दीर्घा का वक्त से पहुंचना भी कोनसा यम का आमंत्रण झूकला सकता था!
शास्त्रों के अनुसार , दीर्घा के पति और अवंत की दाह संस्कार की क्रिया और बाकी बचे सभी कर्मकांड हो चुके थे और सभी अतिथि एक के बाद एक आ जा रहे थे।
दोनो के गुजरे अब कई दिन हो चुके थे। दीर्घा अभी तक इस हादसे से बाहर नहीं आ पाई, आती भी कैसे! सहसा थके हुए बदन के साथ वोह उसी गद्दे वाले पलंग पर जा पसरी और उसका माथा ठनका! लेटने के तुरंत साथ ही फिर से पलंग पर बैठ खड़ी हुई और हरी की तस्वीर के सम्मुख आक्रोश के साथ देखने लगी और उसके मुंह से निकल पड़ा ,“ हरी, ऐसे मंशा पूरी करता है तू?”
*समाप्त*
–वैमक (psycho)
( कई वक्त से ये कहानी सोच रही थी, पर अंत अच्छा न होने की वजह से लिखी ही नही गई! आज लिख दिया...इसे बस एक कल्पना मात्र समझ कर आगे बढ़े! श्री हरि ! )
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© psycho