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बरसो पुरानी कलम
काफी समय बाद कुछ लिखने का मन हुआ
लिखने को टॉपिक तो कई थे पर शब्द एक भी नही।
कागज़ से कहना तो बोहोत कुछ था
पर शायद कलम में अब स्याई नहीं।
बरसो बाद जब हाथ मैं कलम ली तो लगा अब ये मेरी नही।
कलम तो हर रोज हाथ में रही मेरे कभी दस्तखत करते तो कभी कुछ खास लिखते।
पर बरसो बाद ऐसा लगा जैसे अब उस कलम को मुझसे मोहब्बत ही रही नही।
बरसो बाद जब लिखने की शुरुआत की तो हाथ भी यूं लड़खड़ाने लगे।
ये देख मन को ठेस पहुंची और लफ़्ज़ गुमराह से होने लगे।
सोचा ये सब क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है...
तब मैंने कलम से पूछा क्या हुआ जब तुझे हाथ में लिया तो तू रुख क्यों गई?
तू वही है न या बदल गई?
इतने सवालों के बाद भी वो चुप सी थी
मानो जैसे उसमे जान ही न रही।
मुझे लगा शायद स्याई खत्म हो गई होगी
पर दुकानदार बोला इतने साल तुमने इसको चलाया नही तो इसकी स्याई वैसी ही रह गई।
मेरी चिंता और बढ़ गई आखिर क्या बात होगी
जो बरसो बाद मेरी कलम रुख गई।
तब एक आवाज सुनाई दी
इतना परेशान क्यों हो दोस्त
मैं अभी भी जिंदा हूं....
मैं अभी भी वही हूं पर शायद तुम बदल गई...
मैं तो अभी भी कोरे कागज़ो को रंगा देती हूं पर तू रंगा न पाई......
इन बीते दिनों में तू इतनी घूम हों गई की मुझे सामने देख कर भी पहचान नही पाई......
गलती तेरी नही की तुझे मैं याद नही रही
पर मैं तो पहले भी तेरी थी और हमेशा तेरी ही रही।
बरसो पहले तूने बोहोत कुछ खोया और पाया होगा..
बोहोत कुछ बदला और संभला होगा...
बोहोत कुछ नया और पुराना होगा....
पर उनमें मेरा नाम काश ही तुम्हे याद होगा.....
आज मुझे देख तुम रुक सी गई गलती मेरी नही थी
बस तुम खुदके सपनो से बरसो पहले पीछे छूट सी गई।
और शायद इसीलिए Topic बोहोत ते तुम्हारे पास
पर मुझे संभाल न पाई।
बरसो पहले जो मुझे हाथ में लिए कोरे कागज़ो को रंगा देती थी अब वो एक शब्द भी लिख न पाई।
चिंता न करो मैं तो अब भी वही हूं...
बस तुम अब वो नही रही।
अगली बार आओ तो पुरानी यादों को झोली मैं डाल ले आना।
अपने Topics को नहीं बस खुदको खुदके साथ लें आना।
आते आते बस इतना करना की कभी वापस न जाना।
भले ही कुछ सालो बाद आना पर वही पुरानी बनके आना।
अपनी हाथो में प्यार समेट लाना।
और तुम मेरी भी कुछ लगती हो ये याद रखना।
इतना सब सुन ही रही थी की कुछ गिरने की आवाज सुनाई दी
आजू बाजू देखा तो कोई नही था
तब समझा ये मेरे लड़खड़ाते हाथो के लिए ही एक जवाब था।
जो बरसो पहले अधूरा रह गया बस उसी का आगाज़ था।
सचाई थी उस आवाज में की मैं पीछे छूट गई
वरना कलम में स्याई का रंग तो आज भी चढ़ा था
बस मैं ही कोरे कागज़ को रंगा न पाई।
© tejswii_madavi