श्रापित हवेली और प्यार
Chapter 3: दर्पण और अनदेखा सच
रात का तीसरा पहर चल रहा था । हवेली की दीवारों पर चिपके समय के निशान जैसे ज़िंदा हो उठे थे। अनिका को वो निशान देखकर समझ नहीं आ रहा था कि वह जो देख रही है, वह सच है या फिर उसका भ्रम। पुस्तकालय में मिले रहस्यमय संदेशों और रूद्र की परछाई ने उसकी बेचैनी को और बढ़ा दिया था।
“यह हवेली मुझे कहीं न कहीं अपनी ओर खींच रही है, जैसे मैं इससे जुड़ी हूँ। लेकिन कैसे?” उसने खुद से कहा।
सुबह होते ही उसने घर के हर कोने को खंगालने का फैसला किया। जैसे ही सुबह हुई वह अपनी माँ और बाकी लोगों की नजरों से बचकर हवेली के पिछले हिस्से में पहुँची। वहाँ उसे एक बंद दरवाजा मिला, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था। दरवाजा लोहे का था और उस पर बहुत से जाले लगे हुए थे।
जैसे ही उसने दरवाजे को छूने की कोशिश की, उसे एक ठंडी हवा का झोंका महसूस हुआ। दरवाजा धीरे-धीरे खुद-ब-खुद खुल गया। अंदर एक लंबा गलियारा था, जो गहराई में कहीं जा रहा था। गलियारे की दीवारों पर टिमटिमाती रोशनी थी, जैसे कोई उसे भीतर बुला रहा हो।
“यह जगह यहाँ पहले क्यों नहीं दिखी?” उसने खुद से सवाल किया।
वह धीरे-धीरे उस गलियारे में चली गई। वहाँ हवा और भी भारी थी, जैसे हर सांस के साथ उसका वजन बढ़ रहा हो।
गलियारे के अंत में उसे एक बड़ा कमरा मिला। कमरे के बीचों-बीच एक विशाल दर्पण था, जो एक सुनहरी फ्रेम में जड़ा हुआ था। उस दर्पण में उसकी...
रात का तीसरा पहर चल रहा था । हवेली की दीवारों पर चिपके समय के निशान जैसे ज़िंदा हो उठे थे। अनिका को वो निशान देखकर समझ नहीं आ रहा था कि वह जो देख रही है, वह सच है या फिर उसका भ्रम। पुस्तकालय में मिले रहस्यमय संदेशों और रूद्र की परछाई ने उसकी बेचैनी को और बढ़ा दिया था।
“यह हवेली मुझे कहीं न कहीं अपनी ओर खींच रही है, जैसे मैं इससे जुड़ी हूँ। लेकिन कैसे?” उसने खुद से कहा।
सुबह होते ही उसने घर के हर कोने को खंगालने का फैसला किया। जैसे ही सुबह हुई वह अपनी माँ और बाकी लोगों की नजरों से बचकर हवेली के पिछले हिस्से में पहुँची। वहाँ उसे एक बंद दरवाजा मिला, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था। दरवाजा लोहे का था और उस पर बहुत से जाले लगे हुए थे।
जैसे ही उसने दरवाजे को छूने की कोशिश की, उसे एक ठंडी हवा का झोंका महसूस हुआ। दरवाजा धीरे-धीरे खुद-ब-खुद खुल गया। अंदर एक लंबा गलियारा था, जो गहराई में कहीं जा रहा था। गलियारे की दीवारों पर टिमटिमाती रोशनी थी, जैसे कोई उसे भीतर बुला रहा हो।
“यह जगह यहाँ पहले क्यों नहीं दिखी?” उसने खुद से सवाल किया।
वह धीरे-धीरे उस गलियारे में चली गई। वहाँ हवा और भी भारी थी, जैसे हर सांस के साथ उसका वजन बढ़ रहा हो।
गलियारे के अंत में उसे एक बड़ा कमरा मिला। कमरे के बीचों-बीच एक विशाल दर्पण था, जो एक सुनहरी फ्रेम में जड़ा हुआ था। उस दर्पण में उसकी...