...

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अल्फ़ाज़
मैंने देखा था उसे ,कई बार खुद से जूझते हुए;
अपने स्वाभिमानी आंखों से आंसू के कतरे को थामे; अपने आत्मसम्मान की रक्षा वो जिस तरह करती,
वो मुझे प्रेरित करता था;
एक औरत का स्वाभिमानी होना ,अपनी बात रखने की आजादी कहां देता है ये समाज!
उसके शब्द - औरत ही औरत की दुश्मन हैं,जबतक हम एक दूसरे के लिए आगे नहीं आयेंगे,कुछ नहीं बदलेगा,
ना पुरुष ! और ना ही पुरुष प्रधान ये समाज!
उसकी बातें क्रांति लाती थी,उसके संघर्ष को सम्मान करने को जी चाहता;
उससे मुलाकात के आखिरी शब्द
" हर दिन तोड़ी जाती हूं,तन -मन और धन से; स्वाबलंबी होना औरतों को शोभा कहां देता हैं! मुझे खुद भी पता नहीं किस गोंद से (किस फेवीकोल से)खुद के टूटे मन -तन को जोड़ लेती हूं,हर बार....बार बार...!

© MJMishra