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" स्वाभिमान "
" आप समझने को तैयार क्यों नहीं है। इकलौता बेटा है। बच्चों के ब्याह में मां-बाप क्या कुछ नहीं करते! " निर्मला बोली।

"देखो निर्मला! रमेश की पढाई-लिखाई में मैंने आवश्यकता से अधिक किया। उसके लिए सुन्दर लड़की भी खोज ली। अब रही बात उसकी शादी की तो, ये काम रमेश को स्वयं करना होगा।" मणिराम दृढ़ थे।

"मगर आप ये भी सोचिये। शादी के इतने सारे खर्च वो अकेला कहां से लायेगा?" निर्मला व्याकुल थी।

"बेरोजगार नहीं है तुम्हारा बेटा। अच्छी-खासी नौकरी है। और फिर जरूरत क्या है इतने सारे ताम-झाम की। सादगी से भी तो विवाह किया जा सकता है?" मणिराम बोले।

"मगर बिना सहयोग के वह ये सब कैसे करेगा?" निर्मला बोली।

"जैसे मैंने किया था। भूल गई। हम दोनों की शादी की सभी व्यवस्थाएं अकेले मैंने की थी।" मणिराम बोले।

"वो ज़माना और था। तब इतनी महंगाई नहीं थी। आज के युग में शादी जैसा बड़ा आयोजन करना कोई छोटी बात नहीं है।" निर्मला ने कहा।

"ज़माना आज भी वैसा ही है। कल भी शादीयां वैसी ही होती थी जैसी आज हो रही है।" मणिराम ने सझमाया।

"या तो तुम अपने बेटे को मुझसे कम आंकती हो या तुम्हें उस पर भरोसा नहीं?"

"अरे भई! पच्चीस साल का पढ़ा लिखा होनहार युवा है हमारा बेटा। उसे इतना कम मत आंको। शादी जैसा महत्वपूर्ण कार्य वह स्वयं करे तब उसकी ख्याति और भी अधिक फैलेगी।" 

"मगर...?" निर्मला बोली।

"अगर-मगर कुछ नहीं। उसे एक मौका तो दो। अब अगर उसे सहारा दिया तो आगे बीवी और बच्चों के कार्यों में भी सहयोग मांगता दिखेगा। जो आदमी गृहस्थ जीवन का बोझ अकेले न उठा सके उसे विवाहित होने का अधिकार नहीं।"

"और फिर मान लो। लाखो रूपये खर्च कर हमने उसकी धूम-धाम से शादी करवा भी दी तब भी उससे लाभ क्या? जो रीति-नीति शुरू से चली आ रही है हम उसे ही तो आगे बढ़ायेंगे और कुछ नहीं।"

निर्मला सोच में पढ़ गई।

"रमेश की शादी माता-पिता के कमाये रूपयों से न होकर स्वयं के अर्जित किये धन से होना न्यायसंगत है। भले ही वो अल्प हो किन्तु उसकी उपज रमेश के भविष्य के लिए शुभ होगी।" मणिराम बोले।

"रमेश के कितने सारे स्वप्न है, स्वयं की शादी को लेकर। डीजे साउण्ड, बफेट पार्टी और कितना कुछ। यदि ये सब न हो सका तो कितना दुःखी होगा मेरा बेटा?" निर्मला की आंखें छलक आई।

"ये सब क्षणिक है निर्मला। इन सबकी चकाचौंध कुछ पलों के लिये खुशी तो दे सकती है किन्तु दीर्घकालीन आनंद नहीं दे सकती।"

"मगर अराध्या के माता-पिता कितनी कुछ तैयारी कर रहे  उसकी शादी की। आखिर हमें उनका तो ध्यान रखना होगा।" फिर एक नई चिंता निर्मला ने परोस दी।

"मेरे अनुसार यदि उन्हें हमारी सम्पन्नता से प्रेम है तब ये  संबंध केवल ऊपरी है। आंतरिक संबंध सुविधा नहीं देखता। रही बात अराध्या की। तो उसका सर्वस्व तो रमेश है। शेष सब तो बाद में आता है।" मणिराम बोले।

"आपकी यही सब बातें मुझे परेशान करती है। रमेश बचपन से आपका शुष्क व्यवहार सहता आया है। अब तो उसे अपने मन की करने देवे।" निर्मला भावुक थी। "आखिरी ये सब उसका ही तो है।"

"मैं भी यही कह रहा हूं। आखिर यह सब उसका ही तो है। लेकिन हमारे बाद!" मणिराम ने निर्मला के स्वर में स्वर मिलाया। "मैं जानता हूं रमेश के साथ मैं बचपन में कुछ कठोर था। किन्तु मेरे हृदय में उसके लिए प्रेम नहीं है, ऐसा कहना उचित नहीं होगा।" मणिराम ने कहा।

"शायद आपने उसे सच्चा प्यार अब तक नहीं दिया। उसके साथ आपका व्यवहार सदैव आम रहा। रमेश आपके लिए कोई विषेश स्थान नहीं रखता।"

"शायद तुम इसलिए ऐसा कह रही कि मैंने उसे बाहर खेलने-कुदने से रोका नहीं। बाजार की तली-गली चीजे खाने दिया। रमेश के बीमार होने पर उसे अधिक ध्यानाकर्षण नहीं दिया।" मणिराम ने बताया।

"हां यही सत्य है।" निर्मला बोली।

"निर्मला! मैं रमेश को कोमल पुष्प नहीं बनाना चाहता था, जो जल्दी ही मुरझा जाएं! बल्कि मैं चाहता था कि रमेश अंदर से कठोर बने जो हर परिस्थिति को सहन करने में सक्षम हो।" 

"बहुत अधिक देखभाल और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होने से बच्चों को जीवन का सही मुल्य समझ में नहीं आता। क्योंकि सुविधाओं के वे आदि हो जाते है। उन्हें लगता है सुख-सुविधा उनका मौलिक अधिकार है।" मणिराम बोल रहे थे।

"रमेश को यदि मैं पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करने को नहीं कहता तब शायद उसे रूपये की कीमत आज पता नहीं होती। आज तुम्हारा बेटा समर्थ है। सबकुछ कर सकता है। और सबसे अच्छी बात यह है की वह अच्छा-बुरा समझता है। मुझे उस पर पुरा भरोसा है। देखना अपनी शादी वो बेहतर ढंग से करेगा। बिना हमारी मदद लिये। और मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं।" मणिराम विश्वास से भरे थे।

निर्मला उदास होकर एक ओर बैठ गयी।

तब तक रमेश बाहर से आ गया।

"मां-बाबुजी! सारी व्यवस्थाएं हो गयी है। आप लोग निश्चिंत रहे।" रमेश उत्साहित था।

"मगर बेटा! इतना सब कैसे होगा?" निर्मला ने पुछा।

"मां! मेरे पास कुछ सेविंग जमा है और बाॅस ने एडवांस में रूपये देने के लिए स्वंय एप्रोच किया है। आप चिंता न करे, सबकुछ अच्छे से संपन्न हो जायेगा।" कहते हुये रमेश अपने कक्ष में चला गया।

मणिराम निर्मला के पास आये। "देखा निर्मला! हमारे कुछ कहे बगैर ही रमेश सब समझ गया। अब तो खुश हो जाओ।"

मणिराम बोले।

"हां! आप ठीक ही कहते है।" निर्मला शांत थी।

"तुम चिंता मत करो। रमेश की शादी में तुम्हें जो-जो करना है वह पुरे मन से करना। बेटे की शादी के लिए कोई कसर बाकी मत रखना। मैं हूं ना!" मणिराम के स्वर कुछ नरम थे।

"मगर अभी तो आप कह रहे थे... !"

"हां! मैं अब भी वही कह रहा हूं जो कुछ देर पहले कह रहा था।"

"निर्मला! हम लोग अब बुढ़े हो रहे है। मुझे अपने बेटे पर पुरा विश्वास है। मगर परिस्थितियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।" संवाद के असल उद्देश्य पर मणिराम आने वाले थे।

"जब तक ये रूपये हमारे पास है हम स्वाभिमान से जी सकते है। बस इसीलिए ये सब नाटक कर रहा हूं। उम्मीद है हमेशा की तरह इस बार भी तुम मुझे समझोगी?" इतना कहकर मणिराम संध्या विहार को चल पड़े।

"रूकिये जी! मैं भी आती हूं।" निर्मला पति मणिराम के स्वांग को समझ चूकी थी। रमेश की शादी के भावि आनंदित क्षणों पर चर्चा करते हुये वो दोनों घर से बाहर निकल पड़े।

समाप्त।

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