...

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नजरिया
नजरिया क्या है, यह बात कैसे पता होती?
वो तो बंद किताब थी,
एक पहेली जो लाजवाब थी,
जीती थी जिंदगी मगर, उसकी पहचान,
भी उसके लिए ख्वाब थी,
सोचती थी क्या कभी ख्वाब पूरा होता है,
सुना था किसी का होता है किसी का नही,
मगर प्रश्न उसका था,
जिसने पाना चाहा सब कुछ था मगर,
पाकर भी कहां कुछ पाया था,
या यह कहो जो पाया नही चाहा,
जो चाहा नहीं पाया था,
उसने जो पाया अब तो उसको चाहा था,
लेकिन कही न कही अपना ख्वाब सजाया था,
जानती थी अंधेरा है, रोशनी का तो बस,
उसकी पहुंच से कहीं कोसो दूर डेरा है,
फिर भी वो चलती थी, थकती थी मगर
नही रुकती थी। सर्वथा असमंजस में
जीती थी, हमेशा अपने अतीत की परछाई को,
अपने कंधो पर ढोती है।।
जानती थीं सब नकाबपोश है।।
दोस्तो के वेश में दुश्मन सरफरोश है,
फिर भी हंसती थी, खुद पर नही उन
लोगों की नादानी पर, उसकी,
उसकी जो जिंदगी को उससे ज्यादा जीते है,
उसको गिराने के लिए जाने खुद कितना गिरते है।। मगर शान से रहते है, उसके हृदय में
अंतर्द्वंद्व चलता था की क।। क्या कभी अन्याय करने वाला भी अन्याय का भागीदार बनता है?
क्या कभी ऊपरवाला वाला भी पापी का घड़ा भरता है या यह कहो क्या वह कभी संतुष्टि पाएगी या यूं ही सोचते सोचते व्यर्थ ही खाक के सुपुर्द हो जायेगी।।

© nishi bhatnagarr