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वहम

जून का महीना था। शाम के 6 बजे थे फिर भी काफी तेज रोशनी थी सड़क पर। अमूमनतया दिल्ली में इस समय तक काफी गर्मी पड़ने लगती है। परंतु दिल्ली सरकार द्वारा कोरोना की दूसरी लहर से बचने के लिए जो लॉक डाउन लागू किया गया था , उसका असर सड़कों पर साफ साफ दिखाई पड़ रहा था। नेहरू प्लेस की मुख्य सड़क लगभग सुनसान हीं थीं। कार पार्किंग में जहाँ गाड़ियाँ पहले ठसाठस भरी रहती थी , आज वो लगभग खाली थी।

जहाँ पहले बाइक , ऑटो रिक्शा , कार और बसों की शोरगुल से सारा वातावरण अशांत रहता था, आज वहीं पेड़ों की डालों पर बैठीं चिड़ियों की चहचहाहट से गुंजायमान हो रहा था। शर्मा जी का ऑफिस नेहरू प्लेस के पास हीं था। आज कल ऑफिस से घर जल्दी हीं चले जाते थे।ऑफिस में काम कम हीं था। ऑफिस से घर की दूरी तकरीबन 3 किलोमीटर की थी । बुजुर्ग थे सो कोलेस्ट्रॉल की समस्या से पहले हीं जूझ रहे थे। ये तो सौभाग्य था कि मधुमेह का शिकार नहीं थे। शायद शारीरिक श्रम करने की आदत ने उन्हें अब तक बचा रखा था ।

डॉक्टर ने बता रखा था कि शारीरिक श्रम स्वास्थ्य के लिए जरूरी है, लिहाजा वो पैदल हीं जाया करते थे। और पब्लिक ट्रांसपोर्ट तो आजकल वैसे हीं दूज का चाँद हो रखा था। पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर ओला, उबेर आदि की कारें या ऑटो रिक्शा हीं मिलते थे ,जो कि काफी महंगे पड़ते थे, लिहाजा पैदल चलने से जेब पर बोझ भी कम हीं पड़ता था । कोरोना से बचने के लिए हाथों पर सैनिटाइजर छिड़क लिया था। नाक पर मास्क पहनना भी जरुरी था सो मास्क लगाकर धीरे धीरे घर की ओर बढ़ रहे थे।

हालाँकि रोड पर इक्के दुक्के यात्री दिखाई पड़ हीं जाते थे, शायद मजबूरी के मारे। तीस पर एम्बुलेंस वैन की आती जाती आवाजें वातावरण में भयावहता का माहौल और बढ़ा देती थीं। फिर भी पापी पेट का सवाल था, नौकरी के चक्कर में ऑफिस जाना हीं पड़ता था। स्थिती कुछ ऐसी हो चली थी जैसे कि...