'"गुलाब का एक बेरंग फूल" भाग-2 लेखक -मनी मिश्रा
आगे...
....मैंने एक नजर भर पूरे बगीचे को देखा"कहीं कुछ नहीं था ।
सिवाए बर्फ की सफेद चादर के, जिन पर पड़े मेरे पैरों के निशान धीरे-धीरे ही सही, अब ऐसे मिट रहे थे।
"जैसे मैं यहां आई ही नहीं थी"
लेकिन उस दिन वह भी तो नहीं आया था ।कम से कम मेरी आंखों के सामने तो नहीं , जिस दिन मैं तेज कदमों से चलते हुए इस बगीचे में दाखिल हुई थी
" जिस दिन मुझे डॉक्टरेट की उपाधि मिली थी"
" जिस दिन मिर्जा, मुझे अपने घर वालों से मिलाने वाले थे।
जिस दिन वह मेरे साथ नहीं आ पाए थे ," मुझे अकेले आना पड़ा था" "जिस दिन मेरा इंतजार बेहद लंबा होने वाला था "
और जिसकी तारीख थी 23 जनवरी 1990 ।उसी दिन मैंने उस इंसान को इस बेंच पर बैठे देखा था, उसके हाथों में गुलाब के खूबसूरत फूलों का गुच्छा भी था। लेकिन वह फूल मुरझा गए थे ..शायद"
जिसे वह अपनी हाथों में लिए, बेसब्री से किसी का इन्तजार कर रहा था।
साथ ही साथ कुछ बुदबुदा भी रहा था। मानो किसी से पहली बार मिलने वाला हो और उसकी तैयारी कर रहा हो। मैं उसे नजरअंदाज करते...
....मैंने एक नजर भर पूरे बगीचे को देखा"कहीं कुछ नहीं था ।
सिवाए बर्फ की सफेद चादर के, जिन पर पड़े मेरे पैरों के निशान धीरे-धीरे ही सही, अब ऐसे मिट रहे थे।
"जैसे मैं यहां आई ही नहीं थी"
लेकिन उस दिन वह भी तो नहीं आया था ।कम से कम मेरी आंखों के सामने तो नहीं , जिस दिन मैं तेज कदमों से चलते हुए इस बगीचे में दाखिल हुई थी
" जिस दिन मुझे डॉक्टरेट की उपाधि मिली थी"
" जिस दिन मिर्जा, मुझे अपने घर वालों से मिलाने वाले थे।
जिस दिन वह मेरे साथ नहीं आ पाए थे ," मुझे अकेले आना पड़ा था" "जिस दिन मेरा इंतजार बेहद लंबा होने वाला था "
और जिसकी तारीख थी 23 जनवरी 1990 ।उसी दिन मैंने उस इंसान को इस बेंच पर बैठे देखा था, उसके हाथों में गुलाब के खूबसूरत फूलों का गुच्छा भी था। लेकिन वह फूल मुरझा गए थे ..शायद"
जिसे वह अपनी हाथों में लिए, बेसब्री से किसी का इन्तजार कर रहा था।
साथ ही साथ कुछ बुदबुदा भी रहा था। मानो किसी से पहली बार मिलने वाला हो और उसकी तैयारी कर रहा हो। मैं उसे नजरअंदाज करते...