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चाय की टपरी
वो भी एक जमाना था जब नुक्कड़ पर बैठा करते थ, इधर उधर की कहते थे, चाय की टपरी सबका एक ही ठिकाना था जो कहीं ढूंढे न मिलता वह भी वहाँ बैठा मिल जाता।
दफ्तर से आते जाते चाय की चुस्की जरूर होती थी सब अपनी अपनी धानते किसी की कोई न सुनता, कभी मिश्रा जी भड़क पड़ते बीजेपी पर तो कभी गुप्ता जी कांग्रेस की तारीफ करते नहीं थकते। बहस पर बहस छिड़ती चली जाती। समय की कोई फिक्र न करता। और न कोई बुरा मानता।
दिन भर के काम की थकान वही पर एक चाय की...