एक खोज आत्मा की...प्रेम !!
एक खोज आत्मा की...प्रेम !!
प्रेम को खोजते खोजते तुम तक पहुंची हूं तो भला मेरे इस प्रेमकथा में तुम्हारा जिक्र कैसे ना हो।
मेरी इस प्रेमयात्रा का आरम्भ भले ही कहीं से हुआ हो किन्तु इसकी समाप्ति तुम पर आकर होती है।
इस प्रेम में हमें प्राप्त हुआ सन्तोष, जिसने मुझे आत्मिक सुख से परिचय कराया, और साथ ही जब प्राप्त हुआ मन की गहराई को मापने का सुअवसर तो पता चला कि प्रेम तो हमारे हृदय,हमारी आत्मा का मूल संस्कार है, ये मन में ठीक उसी प्रकार विराजमान है जैसे कीचड़ में कमल, मन जाने कितने ही विचारों से लिप्त है किन्तु हमारी प्रेममय आत्मा अपने स्वभाव से इसको बार बार स्वच्छ और सुंदर बना देती है और फिर जैसे कमल पर भगवान ठीक वैसे ही इस मन में पवित्र विचार रहते हैं, प्रेम आत्मा में सदैव ही विद्यमान रहता ही है, और मेरी इस खोज का श्रेय तुम्हें जाता है।
कभी कभी सोचती हूं कि एक वो दिन था जब आप यदि एक भी दिन याद ना करें...(याद ना करने का आशय प्रत्यक्षरुप से बात ना करने से है) तो हम विचलित हो जाते थे... आपने याद क्यों नहीं किया, अब तो आपसे बात ही नहीं करेंगे, रिश्ता ही खत्म, तुम्हें तो कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता और भी जाने कितने कटुबाण छोड़ देते थे तुम पर लेकिन अब सुबह ईश्वर के सामने तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिए प्रार्थना करती हूं कि हे प्रभु सबकुछ ठीक रखना और हमें (हम दोनों को) सदैव सही राह दिखाना, सबको शान्तपूर्ण रखना, और पूरे दिन में तुम्हारे जैसी हरकतें करते हुए कोई दिख जाता है या फिर हमारी यादों के हिस्सों के कुछ पल जैसे —: ढोकला, चाय, जलेबी, फालूदा और पानीपूरी आदि दिख जाते हैं तो अनायास ही होंठ मुस्कुरा देते हैं, इजाज़त भी नहीं मांगते, अब इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं कि मुझपर मेरा वश नहीं रहता है, बस वो सारी यादें हमारे लिए किसी तीर्थ यात्रा, ईश्वर दर्शन और पूजा जैसी हैं जो हर क्षण मुझमें ऊर्जा भरता है मेरी उदासी को दूर कर देता है तो उन पलों को याद करती हूं और बार बार याद करती हूं,तो बस पूरा दिन तुम्हें ही स्मरण करते बीतता है।
जब बिस्तर पर जाती हूं तो मेरी रात्रि की शुरुआत कान्हा के स्मरण से और सुबह कान्हा के दर्शन से आरम्भ होती है, उसके बीच रात में कभी कभी आपके दर्शन भी हो जाते हैं स्वप्न में।
आपको पता है..? आपकी कुछ आदतें मेरे पापा से कुछ आदतें मेरे भाई से मिलती हैं, आपको यूं ही हम कान्हा नहीं कहते आपकी कुछ आदतें कान्हा से मेल खाती हैं शायद वो इसलिए क्योंकि सब आत्माओं के मूल संस्कार ( शान्ति, शक्ति, सुख,प्रेम,पवित्रता,) एक जैसे ही होते हैं और आप लोगों की आदतें अपने मूल संस्कारों की जड़ों को ना छोड़कर संस्कारों के स्वभाव को अपनाकर स्वयं को परमात्मा का अंश बनाए रखा है।
अब मेरे इस प्रेम को यह संसार क्या नाम देता है मुझे इसकी चिन्ता नहीं, इन मनुष्यों से क्यों डरना और कैसी चिन्ता करना, मैं तो स्वयं को साफ़ स्वच्छ, पवित्र, शान्त, शक्तिशाली, प्रेममय, मर्यादित आत्माओं में से एक समझती हूं, जिनका रक्षण, देखभाल स्वयं परमपिता (परम्+आत्मा) परमात्मा करते हैं, उस संसार को मानती हूं और मुझे विश्वास है कि उनके लिए हमारा प्रेम सात्विक है क्योंकि हमारा प्रेम आत्मिक है,ना ही इस दुनिया का है और ना ही इस दुनिया के लिए है।
मेरे लिए प्रेम ठीक वैसे ही है जैसे समुद्र मंथन में प्राप्त अमृत कलश।
© ~आकांक्षा मगन "सरस्वती"
#मेरीप्रेमयात्रा
#कान्हा
प्रेम को खोजते खोजते तुम तक पहुंची हूं तो भला मेरे इस प्रेमकथा में तुम्हारा जिक्र कैसे ना हो।
मेरी इस प्रेमयात्रा का आरम्भ भले ही कहीं से हुआ हो किन्तु इसकी समाप्ति तुम पर आकर होती है।
इस प्रेम में हमें प्राप्त हुआ सन्तोष, जिसने मुझे आत्मिक सुख से परिचय कराया, और साथ ही जब प्राप्त हुआ मन की गहराई को मापने का सुअवसर तो पता चला कि प्रेम तो हमारे हृदय,हमारी आत्मा का मूल संस्कार है, ये मन में ठीक उसी प्रकार विराजमान है जैसे कीचड़ में कमल, मन जाने कितने ही विचारों से लिप्त है किन्तु हमारी प्रेममय आत्मा अपने स्वभाव से इसको बार बार स्वच्छ और सुंदर बना देती है और फिर जैसे कमल पर भगवान ठीक वैसे ही इस मन में पवित्र विचार रहते हैं, प्रेम आत्मा में सदैव ही विद्यमान रहता ही है, और मेरी इस खोज का श्रेय तुम्हें जाता है।
कभी कभी सोचती हूं कि एक वो दिन था जब आप यदि एक भी दिन याद ना करें...(याद ना करने का आशय प्रत्यक्षरुप से बात ना करने से है) तो हम विचलित हो जाते थे... आपने याद क्यों नहीं किया, अब तो आपसे बात ही नहीं करेंगे, रिश्ता ही खत्म, तुम्हें तो कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता और भी जाने कितने कटुबाण छोड़ देते थे तुम पर लेकिन अब सुबह ईश्वर के सामने तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिए प्रार्थना करती हूं कि हे प्रभु सबकुछ ठीक रखना और हमें (हम दोनों को) सदैव सही राह दिखाना, सबको शान्तपूर्ण रखना, और पूरे दिन में तुम्हारे जैसी हरकतें करते हुए कोई दिख जाता है या फिर हमारी यादों के हिस्सों के कुछ पल जैसे —: ढोकला, चाय, जलेबी, फालूदा और पानीपूरी आदि दिख जाते हैं तो अनायास ही होंठ मुस्कुरा देते हैं, इजाज़त भी नहीं मांगते, अब इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं कि मुझपर मेरा वश नहीं रहता है, बस वो सारी यादें हमारे लिए किसी तीर्थ यात्रा, ईश्वर दर्शन और पूजा जैसी हैं जो हर क्षण मुझमें ऊर्जा भरता है मेरी उदासी को दूर कर देता है तो उन पलों को याद करती हूं और बार बार याद करती हूं,तो बस पूरा दिन तुम्हें ही स्मरण करते बीतता है।
जब बिस्तर पर जाती हूं तो मेरी रात्रि की शुरुआत कान्हा के स्मरण से और सुबह कान्हा के दर्शन से आरम्भ होती है, उसके बीच रात में कभी कभी आपके दर्शन भी हो जाते हैं स्वप्न में।
आपको पता है..? आपकी कुछ आदतें मेरे पापा से कुछ आदतें मेरे भाई से मिलती हैं, आपको यूं ही हम कान्हा नहीं कहते आपकी कुछ आदतें कान्हा से मेल खाती हैं शायद वो इसलिए क्योंकि सब आत्माओं के मूल संस्कार ( शान्ति, शक्ति, सुख,प्रेम,पवित्रता,) एक जैसे ही होते हैं और आप लोगों की आदतें अपने मूल संस्कारों की जड़ों को ना छोड़कर संस्कारों के स्वभाव को अपनाकर स्वयं को परमात्मा का अंश बनाए रखा है।
अब मेरे इस प्रेम को यह संसार क्या नाम देता है मुझे इसकी चिन्ता नहीं, इन मनुष्यों से क्यों डरना और कैसी चिन्ता करना, मैं तो स्वयं को साफ़ स्वच्छ, पवित्र, शान्त, शक्तिशाली, प्रेममय, मर्यादित आत्माओं में से एक समझती हूं, जिनका रक्षण, देखभाल स्वयं परमपिता (परम्+आत्मा) परमात्मा करते हैं, उस संसार को मानती हूं और मुझे विश्वास है कि उनके लिए हमारा प्रेम सात्विक है क्योंकि हमारा प्रेम आत्मिक है,ना ही इस दुनिया का है और ना ही इस दुनिया के लिए है।
मेरे लिए प्रेम ठीक वैसे ही है जैसे समुद्र मंथन में प्राप्त अमृत कलश।
© ~आकांक्षा मगन "सरस्वती"
#मेरीप्रेमयात्रा
#कान्हा