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ओ कान्हा, तुझसे नजरिया हटती ही नहीं...!!!
बृज की रेशमी गलियों में बसंत का मौसम था। हवाओं में खुशबू, बांसुरी की मधुर धुन और राधा के मन में कान्हा की छवि। वह सुबह से अपने आंगन में बैठी थी, हाथ में रंगीन चूड़ियाँ और आँखों में सपने। राधा का मन आज बहुत चंचल था, जैसे मन का मोर अपने कान्हा के प्रेम में झूम रहा हो।

कान्हा आज बंसी लेकर राधा के गाँव आये थे। वह हमेशा की तरह अपनी शरारतों में लगे हुए थे, कभी गोपियों की मटकी फोड़ते, कभी उन्हें छेड़ते। पर उनकी आँखें सिर्फ राधा को ही ढूँढ रही थीं। वे जानते थे कि राधा भी वहीं कहीं उनके आने का इंतजार कर रही होगी।

आखिरकार, राधा और कान्हा की नज़रें मिलीं। राधा का चेहरा लाल हो गया, जैसे गुलाब की पंखुड़ियाँ सुबह की ओस से भीग गई हों। कान्हा ने मुस्कुराते हुए बंसी बजाई, और राधा का दिल धड़क उठा। वह खुद को रोक नहीं पाई और धीरे-धीरे कान्हा की तरफ बढ़ी।

राधा ने कहा, ओ कान्हा, तुझसे नजरिया हटती ही नहीं। क्यों तू ऐसे बाँसुरी बजाता है कि मेरा मन तेरे पास खिंचा चला आता है?

कान्हा ने हंसते हुए उत्तर दिया, राधा, ये तो मेरे मन का जादू है। जब तू मेरे पास होती है, तो मेरी बंसी अपने आप ही मधुर हो जाती है।

दोनों ने साथ बैठकर समय बिताया, बातें कीं और अपनी आँखों से ही एक-दूसरे के दिल की बात कही। वे जानते थे कि उनका प्रेम शाश्वत है, एक ऐसा प्रेम जो समय और स्थान से परे है।

जैसे ही सूरज ढलने लगा, कान्हा ने राधा का हाथ थाम लिया और कहा, राधा, चाहे कितनी भी दूरियाँ क्यों न आ जाएँ, मेरा मन हमेशा तुझसे ही बंधा रहेगा।

राधा ने मुस्कुराते हुए कहा, कान्हा, मेरा भी दिल तुझसे बंधा है। तेरी बंसी की धुन में मैं हमेशा खोई रहूंगी।

उस दिन से, जब भी बृज की हवाओं में कान्हा की बंसी की धुन गूंजती, राधा का दिल खिल उठता। वह जानती थी कि कान्हा की बंसी की आवाज़ हमेशा उसे बुलाती रहेगी, और वह हमेशा कान्हा की ओर खिंचती चली आएगी। यही उनके अमर प्रेम की कहानी थी, जो आज भी बृज की हवाओं में गूंजती है - ओ कान्हा, तुझसे नजरिया हटती ही नहीं।
© 2005 self created by Rajeev Sharma