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कुनबा - 1.4 चुप्पी के अल्फ़ाज़ - वो काली रात!
पंडतायन:- (अचानक से सोते सोते आधी रात में) :- किसी ने सही कहा है कि पूत के पाँव पालने में ही बता देते है कि कितने फैलेंगे।

शर्माजी:- अब क्या हो गया? कैसे बड़बड़ा रही है?

पंडतायन:- (शर्माजी की तरफ पीठ करके लेटे हुए चुप्प एक दम, कोई हुंकार नहीं।)

शर्माजी:- नींद में बड़बड़ा रही है क्या? कुछ तो बोल? (यह कहते कहते जैसे ही शर्माजी ने पंडतायन को हिलाया, वो बिदक के उठ खड़ी हुई और आँख मलते हुए, झल्ला के बोली") :-

"मका सोन दोगे या नही... एक तो थारी औलादें और एक तम, पागल बना के फैंक रखा है। लौंडिया भाग गई किसी कलमुहे के साथ सपने में। कहाँ है कहाँ वो, घर पे है या नहीं? या, आज फिर नाईट आउट के नाम पे लौंडे घुमा रही है?"

शर्माजी;- मेरे से क्या पूछ रही है? मेरी क्या मजाल जो मैं कुछ बोलूँ। अरे मैं ठहरा अहसानफरामोश, मेरी क्या मजाल। मैं ठहरा गद्दार, मेरी क्या मजाल। ...to be contd.

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