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समय का चक्र
समय का चक्र

राजस्थान की राजधानी जयपुर में एक परिवार रहता था गुप्ता परिवार। राधेश्याम गुप्ता की परचूनी की दुकान थी ,परिवार में पत्नी -श्यामला ,पुत्र -महेश,दो पुत्रियाँ -गौरी और पार्वती । दुकान का नाम श्याम स्टोर्स था, पर सब कटे की दुकान के नाम से जानते थे। दुकान का यह नामकरण कैसे हुआ किसी को नहीं पता। महेश को भी स्कूल के बच्चे महेश गुप्ता न कह महेश कटा से सम्बोधित करते थे। अध्यापक भी "अरे कटा गृहकार्य किया या नहीं "ऐसे ही पुकारते। बेचारा हर बार कहता "सर मेरा नाम महेश गुप्ता है"। अध्यापक मुस्कुरा कर आगे चल देते।महेश की दोनों बहने भी उसी विद्ययालय में पढ़ती थी। ऐसे ही दिन बीतते जा रहे थे पिता जी दुकान में व्यस्त रहते और माँ भजन कीर्तन और बच्चों की परवरिश में व्यस्त रहती। बच्चे अपने बालपन की मस्ती में मस्त रहते। पर समय के चक्र को कुछ और ही मंज़ूर था। एक बस दुर्घटना में राधेश्याम का निधन हो गया। महेश एकदम से बालपन की दहलीज़ पार कर व्यस्क हो गया। उसे समझ आ गया कि अब उसे पढ़ाई के साथ साथ परिवार का भरण पोषण भी करना है। वह सुबह विद्यालय जाता और दोपहर से रात तक दुकान पर रहता। सुबह माँ दुकान सभाँलती ।महेश ने बारहवी पास कर पढ़ाई छोड़ दी और अपना सारा समय दुकान को दे दिया।

उसका सारा संघर्ष आमदनी बढ़ाने ,बहनों की पढ़ाई पूरी करा उनकी अच्छे घर में शादी कराने के लिए था।साथ ही वह चाहता था कि माँ को जीवन की सारी सुख सुविधा मुहिलिया करवा सके। महेश ने दुकान में आईसक्रीम पार्लर खोल लिया। दुकान में घर में इस्तेमाल होने वाला हर समान रख लिया। अब श्याम स्टोर्स सिर्फ़ परचूनी की दुकान न थी बल्कि जनरल स्टोर बन गया था। दुकान के एक कोने में स्कूल स्टेशनरी का समान भी जुड़ गया था।व्यापार बढ रहा था और दुकान पर नौकर चाकरों की संख्या भी। माँ ने भी भरपूर साथ दिया,दुकान पर समान चलवाने के लिए उसने अपने ज़ेवर गिरवी रख दिए। जब महेश सामान ख़रीदने बाज़ार जाता तो माँ ग़ल्ला संभालती।पूरी कोलनी मे एक ही दुकान थी और जब लोगों को एक जगह ही सारा सामान ,सही दाम पर मिल जाता तो वो इधर उधर क्यों जाते। ग्राहकों के प्रति महेश का व्यवहार बहुत विनम्र था। सब लोग उसके व्यवहार और मेहनत की तारीफ़ करते। व्यापार के साथ महेश की उम्र भी बढ़ती गई। पर दिल के किसी कोने में उसे यह मलाल थ कि वह अपनी पढ़ाई पूरी न कर सका। महेश ने पास वाली दुकान भी किराये पर ले ली और उसमें एस.टी.डी. बूथ खोल दिया।वो ज़माना मोबाईल फ़ोन का न था, इसलिए एस.टी.डी. बूथ से अच्छी कमाई हो जाती थी।

दोनों बहनों ने एम.ए. कर लिया और महेश ने दोनों की शादी संभ्रात परिवार में करा दी।माँ की इच्छा थी कि अब महेश का घर भी बस जाए। दोनों बहने माँ की इच्छा पूरी करने में जुट गई। उन्होंने अपने भाई के लिए एक सुकन्या चुन ही ली नाम था आशा। आशा उनके घर के लिए आशा की किरण बन कर आई। आशा ने सारे घर की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली और माँ को पूर्णत: आराम दे दिया।लेकिन माँ की इच्छा के बिना पत्ता भी न हिलता था। महेश का कारोबार बढ़ने लगा साथ ही साथ परिवार भी। बड़ी बिटिया के जन्म पर महेश बहुत ख़ुश था ,उसने बेटी का नाम किरण रखा और अपने आप से वादा किया कि वह किरण को ख़ूब पढ़ाएगा और क़ाबिल बनाएगा।इसके विपरीत माँ बेहद उदास थी ,उसे तो पोता चाहिए था। समय अपनी रफ़्तार के साथ चल रहा था लेकिन माँ ने कभी किरण के सिर पर प्यार से हाथ न फेरा ।उसे सदा इस्तेमाल किया हुआ समान ही मिलता जैसे पुराना बस्ता ,पुराने कपड़े यहाँ तक की पुराना स्कूल ड्रेस। माँ कहती लड़की पर ख़र्च करना व्यर्थ है। ऐसा नहीं था कि महेश किरण के लिए कपड़े या खिलौने ख़रीदना नहीं चाहता था या ख़रीद नहीं सकता था। पर माँ की बहुत इज़्ज़त करता था और उसकी बात काटना नहीं चाहता था। माँ चाहती थी कि किरण को सरकारी स्कूल में डाला जाए।महेश ने माँ से आग्रह कर किरण को कान्वेंट स्कूल में दाख़िला करवा दिया।

महेश की दूसरी संतान पुत्र हुई।माँ अत्यन्त प्रसन्न थी ,पूरे मोहल्ले को दावत दी गई। पुत्र कारनाम रखा यश । माँ पूरा दिन पोते के साथ बिता देती।घर में आशा और किरण आया बन कर रह गई। मासूम किरण को आशा प्यार से सहलाते हुए कहती"ख़ूब मन लगा कर पढ़ा कर ,देखना एक दिन सब बदल जाएगा"।आशा की बातें किरण के बाल मन को समझ न आती ,पर वह यह जान चुकी थी कि उसे पढ़ लिख कुरकुरा करना है।इधर महेश के बालों में सफ़ेदी आने लगी उधर बच्चों ने भी जवानी की दहलीज़ पर क़दम रख दिया।किरण को एम.बी.ए कॉलेज मे दाख़िला मिल गया।माँ के अत्याधिक लाड़ प्यार के कारण यश ने ग़लत राह पकड़ ली।महेश को जब लगने लगा कि यश का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है तो उसने यश के लिए ट्रेवल एजेंसी खोल दी। चार डीलेक्स बस भी ख़रीद ली,सोचा धंधा करने लगेगा तो शायद सुधर जाएगा।पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। एक दिन यश अपनी कोई इच्छा पूर्ण न होने के कारण घर छोड़ कर चला गया।माँ ने ग़म में खाट पकड़ ली।किरण माँ की ख़ूब सेवा करती। और आख़िर में उसने माँ का आर्शिवाद मिल ही गया। यश की खोज ज़ोर शोर से हो रही थी। अख़बार में विज्ञापन भी निकाला" यश बेटा घर आ जाओ ,दादी बहुत बीमार है तुम्हें देखना चाहती है।तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा"।यश नहीं आया माँ इसी ग़म में दुनियाँ से चली गई।

इतना सब होने पर महेश की हिम्मत भी डगमगाने लगी, बढ़े हुए कारोबार को संभालने के लिए उसे किसी सहारे की ज़रूरत महसूस होने लगी। तब किरण उसका सहारा बनी,ट्रेवल एजेंसी को उसने संभाल लिया और उसे बख़ूबी चलाया भी। धीरे धीरे बसों की संख्या भी बढ़ा ली। अब वह अपने पिता का दाया हाथ बन गई थी। उसने पूरे राजस्थान में टुरिस्ट गेस्ट हाउस खोले और विदेशी यात्रियों को राज्य की परम्परा से अवगत भी करवाया।उसके गेस्ट हाउस में सैलानियों की सुख सुविधा के पुख़्ता इंतज़ाम थे और उनके मनोरंजन का भी पूरा ख़्याल रखा जाता था। उसके गेस्ट हाउस में सैलानियों की संख्य भी बढ़ने लगी।किरण को राजस्थान टुरिस्म की ओर से पुरस्कृत भी किया गया। यश की खोज अभी भी जारी थी। आशा और महेश की आँखों में बेटे का इंतज़ार और मन में बेटी की कामयाबी की ख़ुशी बस गई थी।

रुचि प जैन