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तराजू

पति की आकस्मिक मृत्यु ने सुगंधा को निष्प्राण कर दिया था। पति के इलाज में लिया कर्जा, बेटी की पढाई, घर चलाने की व्यवस्था, बिना पति के सहारे जीवन की कठिन परिस्थितियों का सामना वो करेगी कैसे? ये सब डरावना सच उसको रह रह कर अधमरा कर देता। तेरहवीं तक तो नजदीकी रिश्तेदार साथ रहे, साथ क्या रहे उसके लिए तो पल पल आघात रहे।

विधवा का जीना कोई जीना है!!!

इस होनी को अपना भाग्य मान ले और काट ले रही सही जिंदगी!

दुनिया अकेली औरत को दबोचने को बैठी है, अपने कदम सम्हाल कर रखना!

जवाँ बेटी की जिम्मेदारी भी है, बिना बाप के बेटी को लोग कैसे जीने देते हैं!

तरह तरह की बातों को सुगंधा बस कानो में पारे की तरह सहन करती रही। उसको ये बातें अपने जीवन का सत्य लगने लगी। और अपनी और अपनी बेटी की इस दयनीय दशा के लिए वो ईश्वर से लड़ती, झगड़ती और ढेरों सवाल करती। ईशू अपनी माँ की हालत को समझती और बस आंसू बहा कर रह जाती।

कितने दिन तक आखिर आंसू पीने थे, छोटे मोटे काम कर के जैसे तैसे दो तीन साल तो बीत गए, ईशू का कालेज ख़तम हो गया था और वो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी, कुछ आमदन के साथ साथ घर में रौनक भी रहने लगी, लेकिन ईश्वर अपनी परीक्षा से माँ बेटी को निकलने ही नहीं दे रहे थे। सुगंधा इक दिन चक्कर खाकर रसोई में गिर गई। आनन-फानन में ईशू डॉक्टर को बुला कर लायी, कुछ दवाइयों के साथ ढेर सारी सावधानियों को समझा कर डॉ साब तो विदा हुए, लेकिन ईशू के दिमाग में माँ की सेहत को लेकर गंभीरता भर गए।

मां, चलो कुछ खा लो, हाथ में खिचड़ी की प्लेट लेकर आयी ईशू ने मुस्कुराते हुए सुगंधा को उठाया।

मुझे माफ करना मेरी बच्ची, तुझे खुशी तो कोई दे नहीं पायी, उल्टा तेरे लिए मुसीबत बन जाती हूं। सुगंधा के आंसू गालों पर गिरते, ईशू ने अपने हाथों से उनको रोक लिया।

माँ, कौन सी चिंता खाए जा रही तुमको, क्यू अखिरकार दुःखी हो, मैं हू ना, तुम मेरी ताकत हो, मैं तुमको ऐसे कैसे देख सकती हूँ। किसी ने कुछ कहा? बताओ मुझे!

आज सुगंधा की दफन सी चीखें.... बाहर आने को थी, ईशू भी माँ की तकलीफ को बाहर लाने के लिए भरसक प्रयास कर रही थी।


शेष....




© कविता खोसला