तृतीय पंक्ति , अथवा असली मर्द.... ( लघु कहानी )
आज हमेशा के मुकाबले ट्रेन में कम भीड़ थी। सुरेखा ने खाली जगह पर अपना ऑफिस बैग रखा और खुद बाजू में बैठ गई।
पूरे डिब्बे में कुछ मर्दों के अलावा सिर्फ सुरेखा थी। रात का समय था सब उनींदे से सीट पर टेक लगाये शायद बतिया रहे थे या ऊँघ रहे थे।
अचानक डिब्बे में ३-४ तृतीय पंथी तालिया बजाते हुए पहुँचे और मर्दों से ५-१० रूपये वसूलने लगे।
कुछ ने चुपचाप दे दिए कुछ उनींदे से बड़बड़ाने लगे।
"क्या मौसी रात को तो छोड़ दिया करो हफ़्ता वसूली..."
वे सुरेखा की तरफ रुख़ न करते हुए सीधा आगे बढ गए।
फिर ट्रेन कुछ देर रुकी कुछ लडके चढ़े फिर दौड़ ली आगे की...
पूरे डिब्बे में कुछ मर्दों के अलावा सिर्फ सुरेखा थी। रात का समय था सब उनींदे से सीट पर टेक लगाये शायद बतिया रहे थे या ऊँघ रहे थे।
अचानक डिब्बे में ३-४ तृतीय पंथी तालिया बजाते हुए पहुँचे और मर्दों से ५-१० रूपये वसूलने लगे।
कुछ ने चुपचाप दे दिए कुछ उनींदे से बड़बड़ाने लगे।
"क्या मौसी रात को तो छोड़ दिया करो हफ़्ता वसूली..."
वे सुरेखा की तरफ रुख़ न करते हुए सीधा आगे बढ गए।
फिर ट्रेन कुछ देर रुकी कुछ लडके चढ़े फिर दौड़ ली आगे की...