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डर का सच
वैसे तो ये डर बहुत छोटा सा शब्द है लेकिन इसका असर बहुत बड़ा होता है। बहुत भयानक भी। वैसे हम लोगों ने ही इस शब्द को बहुत बड़ा बना दिया है। ठीक वैसे ही जैसे किसी गली के छोटे मोटे गुंडे को हम अपना नेता बनाकर अपने सिर पर बिठा लेते हैं। अब ये डर भी हर वक़्त हमारे सिर पर ही बैठा रहता है और हम संसदीय प्रणाली में सिर्फ वोट तक सीमित रहने वाले लोग इसे भगवान की तरह चुन लेते हैं और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं इस पर।

बहुत तरह के डर हैं आज हमारे पास। पूरा का पूरा शॉपिंग मॉल खोल रखा है हम लोगों ने डर का। किसी को कुछ पाने का डर, किसी को कुछ खोने का डर। किसी को हँसने का डर, तो किसी को रोने का डर। किसी को नफरत का डर, किसी को मुहब्बत का डर। किसी को इंसान का डर, किसी को जानवर का डर। किसी को आने का डर, किसी को जाने का डर। खाने का डर, पीने का डर, सोने का डर, जागने का डर, सच का डर, झूठ का डर, अपनों का डर, परायों का डर, खूबसूरती का डर, बदसूरती का डर। अमीर लोगों को फुटपाथ पर सो रहे गरीब लोगों पर गाड़ी चढ़ जाने का डर है वहीं उन गरीबों को भी डर है कि सोते में किसी अमीर की गाड़ी उन पर न चढ़ जाये। लोगों को चुप रहने का भी डर है और लोग कहने से भी डरते हैं। यहाँ तक कि शैतान का डर भी है तो लोग भगवान से भी डरते हैं। इतने सारे डर हैं कि अगर सभी को गिनने बैठे तो कहीं मेरी उम्र ही न गुज़र जाये। सारी भूल भुलैया एक तरफ और डर की भूल भुलैया एक तरफ। इसमें घुसने के बाद निकलने का कोई रास्ता ही नहीं मिलता। नकली बाबाओं से आप मुक्ति पा सकते हो लेकिन डर से मुक्ति नहीं मिलती। डर दिखा दिखा कर ही नेता कुर्सी पा लेते हैं। जनता पहले डर से लड़ने के लिए नेता को चुनती है, बाद में उसी नेता से डरने लगती है। डर की महत्वता तो देखिए साहब कि नवरस में भी भय (डर) शामिल है।

डर बचपन से हमारे संस्कारों की भाँति हमारे अंदर प्रविष्ट कराया जाता है उसके बाद हम पर कब्ज़ा कर लेता है, और फिर हमारा मालिक बन जाता है। ये डर ही है जिसने दो दो विश्व युद्ध करवा दिए। प्राचीनकाल में महाभारत करवा दिया। डर ही दंगा करवाता है। एक तरफ लोग बात करते हैं भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस बनने की। लेकिन डर से इस क़दर डर जाते हैं कि शंभूलाल जैसे हत्यारे बन कर किसी निर्दोष अफराजुल की हत्या कर देते हैं। डर का बाजार लगाए लोग हर एक क़दम पर मिल जाते हैं। इतने अच्छे सेल्समैन होते हैं ये लोग कि आपको न चाहते हुए भी डर खरीदना पड़ जाता है। बहुत महँगा वाला कुत्ता है ये जो आपके पीछे तब तक दौड़ता है जब तक आपको काट न ले। इससे कटवाने के बाद आप खुद कुत्ता बनकर दूसरों को काटने निकल पड़ते हैं।

ख़तरनाक महामारी है ये डर। बेहद जानलेवा। मस्तिष्क को निष्क्रिय कर देता है डर। इंसान अपने सोचने समझने की शक्ति खो देता है। अब भला सोचने समझने की शक्ति ही न रहेगी तो फिर इंसान कैसा? जानवर ही कहलायेगा। हॉलीवुड की भाषा में कहें तो ज़ॉम्बी। हाँ वो ही ज़ॉम्बी जिसको फिल्मों में अक्सर देखते हैं हम। आप लोग अभी तक नेताओं को ही ज़ॉम्बी समझते आये हैं। लेकिन डर के वायरस से ग्रसित होकर हम सभी ज़ॉम्बी ही बन रहे हैं और समूची मानव सभ्यता का नाश करने निकल पड़े हैं।

अब सवाल उठता है कि क्या डर सचमुच में इतना ताकतवर है? भाई सच कह रहा हूँ ये कोई जुमला नहीं है और न ही मैं प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार। न ही मैं किसी चुनाव में खड़ा हूँ राष्ट्रवाद का डंडा लेकर। मैं तो डर की बात बता रहा हूँ आपको। लाल किले से भाषण नहीं दे रहा जो झूठ बोलूँगा। डर को तो आप भी पहचानते ही हो। इसीलिए मेरी बात समझ में आ रही होगी। अगर नहीं आयी तो आप भी डर के वायरस से ग्रसित हो चुके हो और शायद धर्म या मज़हब के डर से कटवा कर ज़ॉम्बी बन गए हो। अगर मेरी बात गलत हो तो किसी भी गली या चौराहे पर बुला कर सज़ा देना मुझे। मैं तो फकीर हूँ। जब आप मुझे मारने आओगे मैं अपना झोला उठा कर चल दूँगा।

डर इतना व्यापक हो गया है कि आज हम ये नहीं देख पा रहे है कि क्या सच में डर को मिटाया जा सकता है? या फिर खुद ही डर सत्ता में बैठे राजनैतिक दल के नेताओं की तरह निर्लज़्ज़ और हिंसक हो गया है। असंवैधानिक तरीके से डर अपने डर की सत्ता चला रहा है। लेकिन सृष्टि का नियम है परिवर्तन का। जो आया है उसे मिटना होगा। मुझे भी आपको भी नेताओं को भी और डर को भी। सतयुग में जब भगवान खुद वास करते थे धरती पर तब भी सतयुग खत्म हो गया तो ये डर किस खेत की मूली है। इसको भी मिटना होगा। हज़ार तरीके हैं डर को मिटाने के। ये और बात है कि हम डर से इतना डर चुके हैं कि डर को मिटाने के तरीके देख ही नहीं पाते।

जरा सोचिये। जब डर इतना व्यापक और विशाल साम्राज्य फैला चुका है अपना बिल्कुल आज के सत्ताधारी राजनीतिक दल की तरह तो क्या डर निडर बन चुका है? डर को कोई डर नहीं है क्या?

डर को भी डर है। वो डर है खुद डर का। जी हाँ। डर अपने ही डर से डरता है। डर को डर लगता है हमेशा कि हम लोग उससे डरना न छोड़ दें। क्योंकि अगर हमने उससे डरना छोड़ दिया तो वो एक ही पल में खत्म हो जाएगा। डर का साम्राज्य एक झटके में तबाह हो जाएगा। चुनाव में खड़े किसी प्रत्याशी की तरह डर की जमानत भी न बचेगी। क्योंकि डर ही डर की ज़िंदगी है। डर की वजह से ही तो डर ज़िंदा है। डर को ज़िंदा रखा है हमारे डर ने। हम डरते रहते हैं और डर की उम्र भी बढ़ती रहती है और उसे ताक़त भी मिलती रहती है। ठीक वैसे ही जैसे हमारी खामोशी से ताक़त मिलती है भ्रष्टाचारी और साम्प्रदायिक वैमनस्यता फैलाने वाले नेताओं को। हम खामोश रहते हैं और ऐसे नेता जीतते रहते हैं। हालात यह है कि चुनाव हारते हारते नेता आखिरी वक्त में कभी दुश्मन देश का डर दिखा देते हैं तो कभी किसी धर्म, मज़हब या किसी समुदाय का डर दिखा देते हैं और जीत जाते हैं। हम इतने बड़े और शक्तिशाली लोकतंत्र को हारते हुए खामोशी से देखते रहते हैं।

तो क्या सोच रहे हैं? क्या आप को नेताओं की गुलामी करते-करते डर की ग़ुलामी करने की भी आदत पड़ गयी है? आज आदत सुधारने का वक़्त है। आज डर को मारने का वक़्त है। डर ने हमको ज़िन्दगी भर डराया है तो चलो आज इस डर को हम डराएं। आज डर को इतना डराया जाए कि ये डर को डर से इतना डर लगे कि डर के मारे खुद ही मर जाये। फिर न रहेगा कोई डर न कोई फिक्र। फिर हम बन सकेंगे इंसान। खुशहाल होगी दुनिया और बेहद खूबसूरत भी क्योंकि फिर यहाँ कोई डर नहीं आयेगा। कोई डर जन्म ही नहीं लेगा दुनिया में डर की वजह से। फिर दुनिया में कोई ज़ॉम्बी नहीं होगा। दुनिया में रहेंगे सिर्फ इंसान और इंसानियत बिना डरे।

- हिमांशु श्रीवास्तव
© Himanshu Shrivastava