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माघ की काली रात(भाग-2)
(५)

समय बीतने के साथ-साथ मजदूर लोग अजय की यादों को भूलते जा रहे थे । फरवरी का महीना आ गया लेकिन श्याम बहादुर अब तक वापस न लौटा तो उन्हें उसकी चिंता भी हुई । अब जंगल में कटान एवं ढुलान का काम पूरा हो चुका था । अब सभी मजदूर अपना-अपना हिसाब लेकर गाँव जाने की प्रतीक्षा में थे । ठेकेदार कोई न कोई बहाना बनाकर उनका हिसाब रोके हुआ था । अब सभी मजदूर दिन भर अपने डेरों में बैठकर ताश खेलते और अपनी हाथ से बनी देशी शराब का आनंद उठाते । इस साल चैतराम की खेती में पन्द्रह बोरी अनाज पैदा हुआ । यह सब दानसिंह की मेहनत का फल था । चैतराम दानसिंह के काम से बहुत खुश था । उसने उसे यह भी आश्वासन दिया कि कोई ढंग की लड़की से वह उसका रिश्ता भी करवा देगा । इस उम्मीद में अधेड़ उम्र का दानसिंह नौजवान की फुर्ती के साथ मेहनत करता । चैतराम ने मछली पकड़ने का काम फिर शुरू कर दिया था । लेकिन वह जँगली जानवरों के लिए फाँसी लगाने का दुःसाहस दुबारा न कर सका ।
एक दिन शाम के समय नदी में बाढ़ सी आ गई । जिससे नदी का पानी कुछ-कुछ मटमैला हो गया । ऐसे पानी में जाल से मछली मारना आसान हो जाता है । चैतराम तो इस काम में बचपन से ही दक्ष था । उसने दानसिंह को खूँटी पर लटकी जाल उतारने को कहा व उसकी मरम्मत की । चैतराम दानसिंह को साथ लेकर मछली पकड़ने नदी की ओर चला गया । नदी के किनारे -किनारे मछली मारते हुए वे दोनों काफ़ी दूर निकल गए । नदी के किनारे ही वह शमशान घाट भी था जहाँ पर कुछ दिनों पूर्व अजय का दाह संस्कार हुआ था । शमशान घाट के नज़दीक पहुँचते ही चैतराम के शरीर में अजीब सी हरकतें शुरू हो गई । उसने जाल दानसिंह को पकड़ाई और नदी किनारे शमशान भूमि की मिट्टी उठाकर जोर-जोर से रोने लगा । इस समय वह पूरी तरह नेपाली भाषा में बात कर रहा था ।
दानसिंह पिताजी-पिताजी कहकर चैतराम को उठाने का प्रयास करता रहा । लेकिन चैतराम शमशान भूमि पर लोटता रहा । कुछ देर बाद वह बेहोश हो गया । दानसिंह के सामने अब एक विकट समस्या खड़ी हो गई । रात काफ़ी हो चुकी थी । इस समय वह चैतराम को इस स्थिति में अकेले यहाँ नहीं छोड़ सकता था । उसका दिमाग़ काम नहीं कर रहा था कि अब कैसे चैतराम को घर तक पहुँचाए । इसके साथ ही अब तक मारी गई मछली व जाल का बोझ भी था । मछलियों का लालच भी दानसिंह के मन में बार-बार आ रहा है ।
नेपाली मज़दूर लोग बोझा ढोने में काफ़ी निपुण होते हैं । दानसिंह का सारा जीवन भी तो इसी काम में बीता था । समय की नज़ाकत को देखते हुए उसने अंततः जाल व मछलियाँ एक पत्थर की आड़ में रख दिया । चैतराम की धोती व अपनी धोती पर गाँठ बाँधकर उसने चैतराम के शरीर को भली-भाँति धोतियों से बाँध दिया । इसके बाद चैतराम को पीठ पर लादकर वह धीरे-धीरे घर की ओर चला आया । क़रीब दो घण्टे बाद वह चैतराम को लेकर घर पहुँच गया ।
चैतराम को इस हालत में देखकर चैतराम के घर में कोहराम मच गया । डेरों में बैठे मजदूर भी रोने-धोने की आवाज़ सुनकर चैतराम के घर पहुँच गए । चैतराम अब भी बेहोशी की हालत में बड़बड़ा रहा था । दानसिंह ने अब तक की सारी घटना वहाँ पर उपस्थित मजदूरों और चैतराम के परिवार वालों को बताई । चैतराम की हालत देख कर उसकी पत्नी सुगनी का रो-रो कर बुरा हाल था ।
ग्रामीण लोग भूत-पिशाच,शैतान,परी आदि ऊपरी हवाओं पर आज भी बहुत विश्वास करते हैं । कई बार उनके विश्वास के अनुरूप इलाज़ करने से लाइलाज़ रोगियों को फायदा भी पहुँचता है । चैतराम की सारी कहानी सुन कर सभी मजदूर व चैतराम के परिवार वालों को भी यह आशंका हुई कि कहीं चैतराम को भी किसी भूत-प्रेत ने अपने वश में कर लिया है । उन्हीं मजदूरों में से एक बुजुर्ग व्यक्ति मन बहादुर भूत उतारने की क्रियाएँ जिन्हें यहाँ की स्थानीय भाषा में बैदें कहते हैं जानता था । उसने तुरन्त सुगनी से बाएँ हाथ से थोड़ी सी राख व चूल्हे की मिट्टी लाने को कहा । इसके साथ ही उसने सुगनी से झाड़ू और थोड़ी सी लाल मिर्च व आग भी वहाँ रखने को कहा । सभी सामग्री सामने रखते ही चैतराम एकदम खड़ा हो गया । वह शमशान की ओर दौड़ने लगा । सामने खड़े मजदूरों ने भागकर उसे पकड़ कर बड़ी मुश्किल से उसे काबू में किया । चार मजदूरों ने चैतराम के हाथ-पैर कस कर पकड़ लिए । उसके बाद बूढ़े ने बैदें शुरू की । बूढ़ा मन ही मन कुछ बुदबुदाता और फिर झाड़ू की चोट से चैतराम की पीठ पर मारता । चैतराम से बार-बार वह यही पूछ रहा था कि बता तू कौन है ? चैतराम पहले यही कहता रहा मेरे स्थान पर चल वहीं बताऊँगा । लेकिन बूढ़े के बार-बार बैदें करने से चैतराम के मुँह से जो बात निकली वह अपने आप में एक रहस्य थी ।


(६)


बुजुर्ग मन बहादुर ने चैतराम के सिर पर भभूति लगाई और उसे पूछा,"बता कौन है तू"
चैतराम बोला, "मैं अजय बहादुर हूँ । मैं नेपाली,गोरख्या !. नेपाली हूँ । मैंने चैतराम को बचाने के लिए शेर से लड़ाई की । चैतराम ने मुझे धोखा दिया । मैं इसे नहीं छोडूंगा"।
मन बहादुर अपने गुरू का नाम लेकर कोई मन्त्र-तंत्र पढ़ने लगा । उसने अपने गुरू की कसम खाते हुए चैतराम के गाल पर दो थप्पड़ जड़ दिए ।
सब लोग कह रहे थे कि चैतराम के अंदर अजय की मृत आत्मा भूत बनकर आ चुकी है । इसलिए उसे कोई असर नहीं हो रहा है । अजय की आत्मा चैतराम के मुख से ही उसके साथ किए गए धोखे की बात सबको बताना चाहती थी । अब चैतराम के शरीर से अजय की आत्मा बोल रही थी । उसने मन बहादुर को हाथ जोड़कर बोला, "गुरू मैं वही करूँगा जो तू कहेगा । लेकिन पहले मेरी बात तो सुनो । इस पापी ने मुझे कैसे धोखा दिया ! पहले वह सुनो"।
इसके बाद चैतराम ने अजीब सा मुँह बना लिया । उसकी आँखें देख कर उसके आस-पास खड़े बच्चे अपनी माँ की गोद में दुबक गए । चैतराम ने मन बहादुर की ओर इशारा करके कहा, "मेरे गुरू का आदेश ! बोल दूँ ! बोल दूँ सबके सामने"।
मन बहादुर ने जल्दी-जल्दी कोई मन्त्र बुदबुदाया,इसके बाद उसने झाड़ू से चैतराम को एक जोरदार फटकार मारी । मुँह पर झाड़ू लगते ही चैतराम जोर-जोर से रोने लगा । चैतराम के अंदर से अजय बहादुर की प्रेतात्मा बोली, "गुरू के घर पर भी अन्याय ! आज मेरा कोई न हुआ । लेकिन मैं इस पापी चैतराम को अपने साथ लेकर ही जाऊँगा"।
यह सुनकर वहाँ खड़े सब लोग हतप्रभ से रह गए । सभी ने चैतराम के अंदर आई अजय बहादुर की आत्मा के आगे हाथ जोड़कर कहा, "तू जो भी है सच-सच अपनी बात बता । तेरे साथ जो भी अन्याय हुआ उसको बताएगा तभी कुछ किया जाएगा"।
अब चैतराम के अंदर से उस आत्मा ने बताया,"पंचों के आदेश की तौहीन की है इसने । मुझे धोखा दिया है इस चैतराम ने । तुम कहते हो इसे छोड़ दूँ । मैं इसे आज न छोडूंगा गुरू "।
सभी लोग हाथ जोड़कर उस आत्मा से अपनी बात साफ़-साफ़ कहने का अनुरोध करने लगे ।
चैतराम के शरीर में अजय की प्रेतात्मा ने एक बार फिर मन बहादुर की ओर देखा और हाथ जोड़कर कहा, "मेरे गुरू का आदेश हो तो मैं कुछ बताऊँ"।
मन बहादुर ने चैतराम की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा,"आदेश है ! आदेश है । लेकिन जो भी बोलेगा सच बोलना । नहीं तो इसी झाड़ू से तुझे मार-मारकर भगाऊँगा"।
वह बोला,"ठीक है मैं तो मृत आत्मा हूँ झूठ बोलकर मुझे अब क्या हासिल होगा । मेरी बात सुनकर मेरी अंतिम इच्छा पूरी कर दो तो मैं चैतराम को छोड़ दूंगा"।
मन बहादुर ने चैतराम की ओर घूरकर देखा और उस प्रेतात्मा से बोला,"अब कुछ बोलेगा भी या फिर मैं कुछ करूँ"।
चैतराम के अंदर से अजय की आवाज़ में प्रेतात्मा बोली,"मेरे दाह संस्कार के बाद मेरी अस्थियाँ मेरे गाँव नहीं भेजी गई । उन्हें हरिद्वार में गंगा में बहाया गया । अगर मैं झूठ बोल रहा हूँ तो पूछो इस पापी चैतराम से । इसने श्याम बहादुर को कहाँ छोड़ा । यह उसके साथ नेपाल क्यों नहीं गया । यदि इसने अब भी सच नहीं कहा तो आज अमावस की काली रात में मैं इसका कलेजा निकालकर खा जाऊँगा"।
यह कह कर चैतराम कुछ शान्त सा हो गया । अब मन बहादुर ने चैतराम से श्याम बहादुर और अजय की अस्थि कलश के बारे में पूछा तो उसने रोते-रोते सब लोगों को उस घटना के बारे में सच-सच बता दिया ।
चैतराम बोला, " उस दिन श्याम बहादुर के साथ अजय की अस्थि कलश लेकर वह टनकपुर तक गया । वहाँ उसके मन में यह सन्देह हुआ कि कहीं श्याम बहादुर ने अजय के घरवालों को सच-सच बता दिया तो अजय के परिवार वाले मुझे को जिन्दा न छोडेंगे । टनकपुर से आगे के लिए उसने श्याम बहादुर और अपने लिए एक बस में दो टिकट बुक करवाए । फिर दोनों बस में अपनी सीट पर जाकर बैठ गए । आगे का सफर लम्बा था इसलिए मैंने श्याम बहादुर को सफ़र में खाने-पीने के लिए आवश्यक सामान लेने दुकान पर भेज दिया । उसके नीचे उतरते ही मैं भी धीरे से बस से नीचे उतरा । बस अड्डे पर टनकपुर से हरिद्वार के लिए बस लगी थी । मैं चुपचाप बस में चढ़ा और अस्थि कलश लेकर हरिद्वार पहुँच गया । वहाँ मैंने चमगादड़ घाट पर अजय का अस्थि कलश विसर्जित कर दिया । इसके बाद मैं वहाँ दो दिन तक एक होटल में रुका रहा जिससे आप लोगों को यह विश्वास दिला सकूँ कि मैं नेपाल से वापस आ गया हूँ । वहीं से एक पुस्तक भण्डार से मैंने एक सादा कागज़ लिया और उस पर श्याम बहादुर की ओर से सारी बातें स्वयं लिखी । उस कागज़ पर श्याम बहादुर के अँगूठे की जगह भी अपने ही हाथ के अँगूठे का निशान लगाया । जिससे मैं अपनी बात को सही साबित कर सकूँ । उस समय तो मैं अपने झूठ को छिपाने में क़ामयाब हो गया । लेकिन मृत आत्मा सब कुछ जानती है"। इतना कह कर चैतराम एक बार फिर बेहोश होकर मन बहादुर की गोद में गिर गया ।


(७)


चैतराम की बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी मजदूरों एवं दानसिंह के मन में चैतराम के प्रति क्रोध का भाव जागृत हो गया । सुगनी के मन में भी अपने पति के इस कृत्य से बहुत ग्लानि उत्पन्न हुई । सभी मजदूरों ने मन बहादुर से चैतराम को इसी हाल में छोड़ने को कहा । लेकिन उम्रदराज़ लोगों के ख़्यालात दूर दृष्टि भरे रहते हैं । उन लोगों की बाते सुनकर बूढ़ा मन बहादुर बोला,"ऐसा करने से अजय की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी । चैतराम को अगर कुछ हो गया तो उसकी आत्मा भी ऐसे ही भटकेगी"। यह कहकर मन बहादुर ने चैतराम के ऊपर वैदें करनी फिर से आरम्भ कर दी ।
अजय की प्रेतात्मा ने फिर चैतराम के मुख से ही अपनी मुक्ति व चैतराम के प्रायश्चित का मार्ग बताते हुए कहा । " यदि अब भी चैतराम मेरी माटी शमशान से ले जाकर मेरे गाँव में पहुँचा दे और अपने उस खेत में जहाँ मेरी मौत हुई अपना पितृ मानकर मेरा स्थान बनवाए तो में इसे छोड़ दूँगा । वैसे परसों तक श्याम बहादुर भी मेरे घर के सदस्यों सहित यहाँ पहुँच जाएगा । वे मेरी माटी मेरे गाँव अवश्य ले जाएँगे । लेकिन पंचों की बात की तौहीन करने की सजा इस दुष्ट को अवश्य मिलनी चाहिए"।
मन बहादुर के साथ-साथ सुगनी भी अजय की प्रेतात्मा द्वारा कही जा रही हर बात को बड़े ध्यान से सुन रही थी । मन बहादुर ने पाँच बार कोई मन्त्र बुदबुदाया । चैतराम के सर पर हाथ रखकर उसने कहा,"ठीक है हमें तेरी सभी बातें मंजूर हैं लेकिन वायदा करो कि यह सब करने के बाद फिर कभी चैतराम या किसी अन्य व्यक्ति को परेशान नहीं करेगा"।
चैतराम के अंदर से अजय की प्रेतात्मा बोली,"ठीक है मेरे गुरु ! लेकिन यदि चैतराम ने इस बार भी कोई चालाकी की तो एक हफ्ते के बाद मैं इसे लेने दुबारा आऊँगा । श्याम बहादुर के साथ किए गये छल का दण्ड भी आप सभी इसे अवश्य देना"। इसके बाद चैतराम के शरीर में अजीब सी हरकतें शुरू हो गई । फिर वह प्रेतात्मा बोली,"मेरे गुरू का आदेश ! अब मैं इसे मुक्त करके अपने स्थान पर जा रहा हूँ "।
मन बहादुर बोला,"ठीक है बाकी सब बातें हम इससे अपने आप करेंगे"।
इसके बाद चैतराम पुनः अपनी पूर्व स्थिति में आ गया । उसने दानसिंह से पूछा,"यहाँ यह भीड़ कैसे लगी है ? मैं यहाँ कैसे आ गया ? मैं तो मछली मार रहा था । मेरी मछलियाँ और जाल कहाँ हैं"?
चैतराम की बातें सुनकर उसकी पत्नी एवं वहाँ खड़े मजदूर उसे विस्मयपूर्वक देखते रह गए । इसके बाद मन बहादुर ने उसे अब तक की पूरी घटना बताई । चैतराम की नीचता के लिए वहाँ खड़े लोगों के साथ-साथ सुगनी ने भी उसे खूब खरी-खोटी सुनाई । इसके साथ ही उन्होंने उसे अजय की प्रेतात्मा द्वारा दी गई चेतावनी भी याद दिलाई । चैतराम ने स्वयं वह सब बातें क़बूल कर ली जो-जो अजय की प्रेतात्मा ने लोगों के सामने कही थी । चैतराम ने भविष्य में दुबारा ऐसी गलती न करने की सौगंध खाई ।
रात बहुत हो चुकी थी । सारे मज़दूर अपने-अपने डेरों में चले गए । दानसिंह और चैतराम का बड़ा बेटा सुनील नदी किनारे रखे जाल और मछलियाँ लेने चले गए । एक घण्टे के बाद दोनों सुरक्षित अपने घर लौट आए । इसके बाद चैतराम व उसके परिवार के लोगों ने भोजन किया और सो गए ।
सुबह सभी मजदूर,चैतराम एवं उसका परिवार अपनी दिनचर्या के अनुसार कार्य करने लगे । तभी मन बहादुर चैतराम के घर पहुँच गया । उसने चैतराम से रात की घटना का ज़िक्र करते हुए पूछा कि आगे का उसका क्या विचार है हुजूर ? उसने चैतराम को इस बात के लिए भी आगाह किया कि आगे यदि उसकी वादा खिलाफ़ी से कोई अनिष्ट हुआ तो इसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार होगा ।
चैतराम ने अपना सिर शर्म से झुकाते हुए कहा,"अब मैं किस मुँह से अजय की माटी लेकर उसके गाँव जाऊँगा । अब तो श्याम बहादुर ने भी मेरी धृष्टता की बात अजय के रिश्तेदारों को बता दी होगी । यदि आप मेरी मदद करने मेरे साथ चलें और उन लोगों को मेरी गलतियों को माफ़ करने के लिए कहें तो इस बार मैं इस काम को अवश्य पूरा करूँगा । चैतराम की बातों को सुनकर पहले तो मन बहादुर ना-नुकर करता रहा लेकिन जब चैतराम ने ठेकेदार से बूढ़े की मजदूरी के पैसे ज़ल्दी चुकाने की शर्त रखी तो वह मान गया । चैतराम उसी समय से ढुलान ठेकेदार बुद्धिराम की ढूँढ-खोज में लग गया । शाम को ही वह ठेकेदार को ढूँढकर मन बहादुर के पास ले आया । दोनों ने पिछली रात की घटना ठेकेदार को सुनाई तथा मन बहादुर के दिहाड़ी का हिसाब करने को कहा । ठेकेदार ने मन बहादुर का हिसाब चुकता किया और अगले सप्ताह अन्य मजदूरों का हिसाब करने की बात कहकर वह चला गया ।
चैतराम ने भी इस काम के लिए होने वाले खर्च की व्यवस्था की । अगले रोज स्नान-ध्यान करके वह मन बहादुर के साथ शमशान घाट पहुँचा । वहाँ से उसने अजय बहादुर के दाह संस्कार वाले स्थान से थोड़ी सी मिटटी उठाकर एक घड़े में रखी । उस घड़े को एक कपड़े पर बाँधकर वे दोनों अपने घर की ओर लौट आए । घर पहुँचकर उसने देखा कि श्याम बहादुर दो अन्य व्यक्तियों के साथ उसके घर पर बैठा हुआ है । श्याम बहादुर ने चैतराम को राम-राम कहा और फिर उसे घटना वाले दिन ग़ायब होने की बात पूछी तो चैतराम की ओर से मन बहादुर बोला," अरे श्यामू ! बाबू जी की टिकट उसके हाथ से उड़कर नीचे गिर गई । उसे ढूँढने के लिए जैसे ही बाबू जी नीचे उतरे तो टिकट लेकर दूसरी बस में चढ़ गए । हुजूर ने तुझे उस बस में ढूंढा तुझे वहाँ न देखकर फ़िर नीचे उतर गए । शायद तब तक वह बस निकल गई होगी जिसमें तुझे बैठाया था । बेचारा दूसरी बस में नेपाल तक गया भी लेकिन अकेले बिना पते के यह अजय का गाँव कहाँ ढूँढता । हजूर तो दो दिन बाद फिर वापस आ गए"।
मन बहादुर ने अजय के घर वालों का गुस्सा शान्त करने के लिए उन्हें बताया कि चैतराम तो अजय की अस्थियों को हरिद्वार जैसे तीर्थ में छोड़ने गया । लेकिन दो दिन पहले अजय की प्रेतात्मा ने हजूर को पकड़ लिया । अजय की आत्मा के बताए अनुसार हम दोनों अजय की मिट्टी लेकर आज नेपाल आ रहे थे । मन बहादुर ने फिर अजय बहादुर के घर के सदस्यों को सांत्वना देते हुए कहा,"भगवान की इच्छा सबसे बड़ी है । उसके द्वारा जिसकी उम्र जितनी लिखी है वह उससे एक पल भी अधिक नहीं जी सकता । हजूर जन्म-मरण का स्थान भी भगवान तय करता है । लेकिन आप लोग यहाँ कैसे आए"।
मन बहादुर की बात सुनकर उन दोनों बूढ़ों ने रोते हुए कहा । हम लोग अजय के चाचा और मामा हैं । श्याम बहादुर ने जब अजय की मौत की बात उसके घर बताई तो इस सदमे से उसके बूढ़े पिता चल बसे । मरते वक्त उन्होंने अजय की माटी अपने गाँव लाने की बात कही थी । इसिलए हम श्याम बहादुर को साथ लेकर यहाँ आए हैं ।
उन दोनों की बात सुनकर चैतराम का सिर शर्म से झुक गया । आज़ उसे अपने किए गए छल पर बहुत पश्चाताप हुआ । उसने श्याम बहादुर और उन दोनों बूढ़ों से हाथ जोड़कर माफ़ी माँगी । अब उसकी पोल न खुल जाए इसलिए उसने सबसे पहले श्याम बहादुर के दो हज़ार रुपये यह कहकर तुरन्त लौटा दिए कि उसने ठेकेदार से श्याम बहादुर की मजदूरी भी ले ली थी । उसने दानसिंह से उन लोगों के भोजन की व्यवस्था करने को कहा । भोजन तैयार होने तक सब लोगों ने अजय बहादुर की अच्छाइयों की चर्चा की । इसी बीच मन बहादुर ने उन दोनों बूढ़ों के सामने अजय की प्रेतात्मा द्वारा यहाँ अपने स्थान बनवाने की बात कही । यह सुनकर दोनों बूढ़ों को मन बहादुर पर कुछ सन्देह सा होने लगा । तब दानसिंह एवं अन्य नेपाली मजदूरों ने उन लोगों को बताया कि मन बहादुर ने ही अजय की प्रेतात्मा से चैतराम को मुक्त करवाया है । मन बहादुर पर माँ दुर्गा का अवतार आता है यह तो पहुँचे हुए भगत हैं । तब उन दोनों बूढ़ों को इस बात पर यकीन हुआ और वे उसकी बात मान गए ।
अब तक दानसिंह ने भोजन तैयार कर लिया था । सभी लोगों ने भोजन किया इसके बाद वे लोग अजय की माटी अपने गाँव ले जाने की तैयारी करने लगे । चैतराम को याद था कि उसने खुद भी अजय की प्रेतात्मा से उसकी माटी लेकर नेपाल जाने का वायदा किया है । मन बहादुर और उसने स्वयं भी उन दोनों बूढ़ों को अपनी मंशा बताई । चैतराम और मन बहादुर तो नेपाल जाने के लिए पहले से ही तैयार थे । चैतराम ने इसे अपनी भूल सुधार का एक अवसर समझा । इसलिए उसने उन्हें यह भी बताया कि उन सभी के नेपाल आने-जाने का खर्च भी वही वहन करेगा । यह कहकर पांचों अजय की माटी का कलश लेकर नेपाल के लिए रवाना हो गए ।
जाते समय चैतराम ने दोनों बूढ़ों को वह स्थान भी बताया जहाँ माघ की अमावस की रात को वह अनहोनी घटना घटी थी । उसने अजय की माटी के कलश से उन दोनों से थोड़ी मिट्टी निकालने को कहा । अजय की स्मृति के लिए स्थान निर्धारित कर वह माटी का कलश लेकर नेपाल चले गए । वहाँ अजय के घर पर एक बार पुनः वह सब क्रियाएँ की गई जो हिन्दू धर्म में एक मृतक के दाह संस्कार के बाद की जाती हैं । इन सब कार्यो को करने के बाद चैतराम नेपाल से वापस अपने गाँव रामगढ़ लौट आया । इसके बाद उसने अजय की स्मृति के लिए निर्धारित स्थान पर एक छोटा सा मंदिर बनवाया । आस-पास के गाँव वालों को वहाँ उसने ब्रह्मभोज करवाया तथा अपने पितरों की तरह अजय बहादुर की पूजा की । आज भी अजय बहादुर के श्राद्ध की तिथि पर चैतराम मुंडन व तर्पण करता है । अन्य गाँव के लोगों से वह कहता है कि श्राद्ध के दिन अजय की आत्मा यहाँ अवश्य आती है । लेकिन अब अजय बहादुर की आत्मा प्रेत योनि से पितृ योनि की हक़दार बन चुकी है ।



भूपेन्द्र डोंगरियाल


© भूपेन्द्र डोंगरियाल