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काली कुर्सी
#कालीकुर्सी
भईया इस कुर्सी की क्या कीमत है बताना जरा। किस कुर्सी की, इसकी? पास पड़ी कुर्सी के तरफ़ इशारा करते हुए, नंद ने कहा। नंद इस दुकान में काम करने वाला एक मुलाज़िम है। तभी सरिता ने कहा नही भईया ये वाली नहीं, ये वाली तो मेरे बाबू को पसंद ही नहीं आएगी। उसकी पसंदीदा रंग काला है, मुझे वो वाली कुर्सी चाहिए। दूर पड़े शीशे के उस पार पड़ी आलीशान काली कुर्सी, किसी राजा की सिंहासन सी जान पड़ रही थी...

"ओह्ह...वो... वो वाली.... मैडम जी वो... वो कुर्सी तो अनमोल है ।
उस कुर्सी को खरीदना है तो आपको बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी" ....।

नंद की बात सरिता को बेहद अजीब लगी ....!
ऐसा कौनसा हीरा मोती जड़ा है ?? जो इसे इतने सस्पेंस के साथ बता रहा है !!
भाई कुर्सी तो कुर्सी ही होती है ...! हां... माना की कुर्सी है तो बेहद खूबसूरत..., एकदम राजा महाराजा वाली... बिल्कुल पुरातन कारीगरी है... क्या नक्शी बनाई है,... वाह... बेहद आकर्षक.... उसपर ये काला रंग भी बेहद खुल भी रहा है...। पर... बहुत भारी कीमत ??? मतलब???

आखिर खिसियाई सरिता बोल पड़ी...
"बहुत भारी कीमत...??? मतलब क्या है तुम्हारा ????"
"चलो माना बहुत खूबसूरत कारीगरी है, बड़ी आरामदेह भी लग रही है ।
पर ऐसे तो नहीं की कोई खरीद ही न पाएं ??? ऐसा क्या जड़ा है उसमें जो इस तरह बकवास कर रहे हो ??? सीधे बोलो न की बेचना नहीं है !!!

अरे नही मैडम जी आप तो बुरा मान गई...!! - नंद बोला
"दरअसल बात ये है की इस कुर्सी का बड़ा इतिहास है।"

"इतिहास कैसा इतिहास" ??
हां दिखती तो बड़ी पुरानी है, एंटीकपीस है क्या ?? इति सरिता...!

बोले तो... हां, इसका इतिहास है...! या फिर यूं कहूं की एक लंबी कहानी है....! ये कुर्सी लगभग.. सौ.. से ... डेढ़ सौ साल पुरानी है , और इसकी जो कहानी है उसे जानने के बाद ही मालिक ने इस कुर्सी के लिए खास ग्राहक ही खरीददार होना चाहिए ये तय किया है ...!

बाप रे बाप... ऐसी कौनसी कहानी है जरा हमें भी तो बताओ ??? देखते है क्या राज छिपा है इस कुर्सी के अंदर..! सरिता तुनक कर बोली...

जी... जी.. बिल्कुल बताते है.. यदि जानने के बाद आपको लगता है की आप एक सही खरीददार है तब ही आपको यह कुर्सी बेची जाएगी..! वरना तो इससे दूर ही रहें तो बेहतर है...!
देखिए न... ! जब की यह हमारे मालिक की सबसे पसंदीदा कुर्सी है..., इसका पूरा मालिकाना हक उनको होने के बावजूद उन्होंने यह कुर्सी बेचने को रखी है, वे खुद इसका इस्तेमाल करने के अधिकारी होकर भी वो इसका इस्तेमाल नहीं करते है, और ना ही किसी को इसपर बैठने देते है ...!!

"भई बहुत हुआ, अब सीधे सीधे बतादो क्या राज है...! अधिक खींचो नहीं...!" सरिता को अपनी उत्कंठा अब दबाएं नही जा रहीं थी ।

इधर आइए मैडम..., ये फोटो देख रहीं है ?? ये है महाराजा सुजीत सिंग इनकी ही ये कुर्सी है । ये कुर्सी उन्होंने अपने दादा महाराज के लिए खास तौर पर बनवाई थी । महाराज सुजीत सिंग ने जब से यह कुर्सी अपने दादा महाराज के लिए खुद के द्वारा बनाएं डिजाइन से बनवाई तब से ही, मतलब लगभग वे पंद्रह साल के थे तब से ही इसी कुर्सी पर उनके दादा महाराज के गोदी में उनके साथ बैठ कर किस्से, कहानियां, राजकाज की बाते सुना करते थे..! अब जब की सुजीत सिंग महाराज को तो राजकाज करना न था, क्योंकि दादा महाराज के ही समय से राजशाही खत्म कर दी गई थी । तो साठ साल के महाराज एक सामान्य इंसान बन गए थे ।

अब चूंकि दादा महाराज के सुपुत्र अजीत सिंग महाराज को शादी के बाद काफी साल बाद पुत्र हुआ था, अर्थात सुजीत सिंग महाराज, और तब तक देश में राजपरिवार, और राजशाही खत्म हो जाने की वजह से अजीत सिंग महाराज की पत्नी के मन में राज परिवार के धन के लिए लालसा जगी...! वैसे वे थी भी खराब स्वभाव की...!
उन्होंने अजीत सिंग महाराज को परेशान करना शुरू किया...! एक दिन उन्ही के टेंशन में अजीत सिंग महाराज कार से अकेले कहीं बाहर गए और उनका एक्सीडेंट हुआ और वो चल बसे...! इसे कोई कहता एक्सीडेंट कोई खून...!
इसका सदमा दादा महाराज को लगा...! उसके कुछ दिन बाद से ही लोगोंको दादा महाराज दिखने बंद हो गए । अजीत सिंग महाराज की पत्नी ने फिर सुजीत सिंग महाराज को लेकर अपने दूसरे महल चली गई । पुराना महल सालों वैसे ही पड़ा रहा...! कुछ सालों बाद सुजीत सिंग के माता का निधन हो गया । अब सुजीत सिंग महाराज बड़े हो चुकें थे । उन्हें अपने दादा महाराज के साथ बिताए पल हमेशा याद आते थे, मां के जाने के बाद सुजीत सिंग फिर से अपने पुराने महल गए । वहां सफाई आदि करवाई..! तब तहखाने में उनको इसी कुर्सी पर एक हड्डियों का ढांचा जंजीरों से बंधा हुआ मिला था । सुजीत सिंग महाराज सब समझ गए । किंतु अब वे कुछ भी नहीं कर सकते थे । बचा ही क्या था ??
उनके लिए वो उनके दादा की याद थी । किंतु अब वो काली याद बन चुकी थी, इसलिए उन्होंने इसे काले रंग में रंग दिया ।

............. हमारे मालिक, जिनका यह फर्नीचर का शोरूम है वे इस राज घराने के कई पीढ़ियों से सेवक रहे है । राजशाही खत्म होने से उनके सेवकोंमेसे काफी लोगों ने अपना अपना बिजनेस खोल लिया...!
जब मालिक का जन्म हुआ तब, सुजीत सिंग महाराज ने उनके दादाजी को यह कुर्सी तोहफे में दी....! दादा... पोते के प्यार की निशानी के रूप में । इस पर भी मालिक के दादा और मालिक दोनों बैठ कर बतियातें थे ।
पर जब उनके दादाजी का देहांत हुआ तब उन्हे उस कुर्सी पर बैठना बेचैन करता था । तो मालिक ने कुर्सी इस्तेमाल करना बंद कर दी । मालिक के यहां दो बेटियां हुई । वे दोनों विदेश में है, तो इसपर फिर ऐसी कोई जोड़ी बैठ नहीं पाई है । लड़कियोंको किसी चीज की कमी न है, वे ये कुर्सी ले जाने के लिए तैयार नहीं है, इसीलिए मालिक ने इसे बेचने के लिए निकाला है । और यही बात यहां खास है, की जिस घर में दादा पोता या पोती हो सिर्फ उसी घर में इस कुर्सी को बेचा जाएगा ।"
तो अब समझी इसका राज ?? ये कुर्सी जितनी पैसों से महंगी है उससे कई गुना ज्यादा भावनाओंकी वजह से महंगी है ....! तो अब मैडमजी आप बताएं क्या आप इसे खरीदने की क्षमता रखती है ??
यदि आपके घर में दादाजी नाम के व्यक्ति का निवास हो तो ही इसे खरीदें अन्यथा नहीं....! यही सख्त नियम है इस कुर्सी को बेचने का....! इतना ही नहीं मालिक खुद उस घर में जाकर देखते है की वास्तव में उस घर में बड़े बूढ़ों का सुखपूर्वक निवास है की नहीं ना हो तो इस कुर्सी को वे वहां से उठा लाने में हिचकेंगे नही ...!!!!!
नंद नॉनस्टॉप बोलता जा रहा था ....! जब कहानी खत्म की तब जाकर रुका... फिर लंबी गहरी सांस लेते हुए सरिता का मुंह ताकने लगा....!

सरिता के आंखों से आंसुओं का गालों पर गिरता प्रपात देख कुछ पल के लिए नंद हड़बड़ा गया..! तुरंत जाकर वो पानी भरा ग्लास और कुछ टिश्यू पेपर लेकर दौड़ता हुआ सरिता के पास आया ।

लो मैडम जी, पानी पियो...! शांत हो जाइए...! जब सरिता शांत हुई तब जाकर नंद ने पूछने की हिम्मत की...

क्या हुआ मैडमजी ?? आप क्यों रो रही थी ??
"पता नहीं , समझ नही आ रहा था मुझे... अभी भी असमंजस में हूं ...! ये दुख के आंसू है या खुशीके...!! पर फिर भी इतना जरूर कहूंगी.... की आज से ये कुर्सी मेरी हुई....! बोला था न मेरे बाबू को ये कुर्सी बेहद पसंद आयेगी ....! वो तो अपने दादाजी का हांथ, साथ एक पल के लिए नहीं छोड़ता है । उसी की इच्छा थी की दादाजी को उनके जन्मदिन पर कुछ खास तोहफा दें,"
"भैया कुछ भी करना पर ये किसी को न बेचना मैं कल अपने बाबू को ये दिखाने ले आऊंगी । बेहद खुश हो जायेगा वो," .... ये कह कर सरिता तुरंत चली गई ।

उसे तो पता ही नहीं था की उसके पीछे दुकान मालिक खुद खड़े होकर सरिता की बातें सुन रहे थे ।

सरिता की आंखों में जितना पानी न था उससे अधिक आंसू के साथ असीम संतुष्टि, आनंदोत्सव उनके चेहरे पर था , क्योंकि आज उस कुर्सी को उसका अगला मालिक मिल चुका था ......!

........ समाप्त ......

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