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हमारी मां (१)
१जुलै,१९८२ को हम सफर पर निकले।हम दो भाई-बहन,हमारी मम्मीजी और मोहिनी आंटी।रात नौ बजे की ट्रेन थी।हमें पापाजी बैठाने आए।उन्हें चिंता थी,इतनी दूर हम दोनों बच्चों को लेकर दोनों औरतें कैसे जाएंगी? आंटी ने पापाजी की चिंता को समझा।वे बोलीं 'आप चिंता मत कीजिए,आपके बच्चे मेरे बड़े बेटे के घर‌ में आराम‌ से रहेंगे।''जी' कह‌कर पापाजी मुस्कुरा दिए।फिर‌ ट्रेन
निकल पड़ी।मम्मी ने मेरा सिर अपनी गोद में लिया और कहने लगीं"देख बेटा मैं जिस काम‌ से निकली हूं उसे पूरा होने में समय लग सकता है।अगर हम सफल होते हैं तब तो ठीक है।नहीं तो वापसी में मैं तुम लोगों को तुम्हारे ददियाल छोड़ दूंगी,वहां तुम अच्छे से रहना और छोटे भाई का ख्याल रखना।तुम अपने पापाजी के गुस्से को जानती हो न"? आगे वे कुछ नहीं बोलीं।
सुबह के ७ बजे ट्रेन औरंगाबाद स्टेशन पर रूकी।हमारे सामने आंटी के बड़े बेटे और बहू खड़े थे।उनके हाथ‌ में चाय और बिस्किट थे।
मम्मी को देखते ही वे बोले 'आंटी आप आराम से बाबा के दर्शन करके आइए।आपका काम‌ सफल होगा।आप अपने मिशन में सफल होंगी न।'मम्मी ने कहा हां उम्मीद तो यही लेकर निकले हैं।' हमने‌ चाय‌ बिस्किट खाई फिर ट्रेन चल पड़ी।
९.३० बजे हमारी ट्रेन शिर्डी स्टेशन पर रूकी।हमने उतर कर एक कमरा लिया।वहां नहाने को गर्म पानी नहीं था।तो मम्मी पास के होटल से गर्म पानी खरीद कर लाईं।हमने नित्य कर्म निबटाया फिर हम दर्शन के लिए निकल पड़े।दर्शन करने के‌ बाद हम जब बाहर निकले तो कुछ दूरी पर लोग बैठे भजन कर रहे थे।मम्मी को भी भजन-कीर्तन में बहुत आनंद आता था।हम वहीं बैठ गये।आंटी आराम करने कमरे में चली‌ गयीं।