यह थी उषा
पक्का गेहुँआ रंग , दरम्याना कद भरा हुआ सुडौल शरीर और सत्रह के आसपास की उम्र ..... यह थी उषा ।उस समय मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी । वो भी मेरी ही कक्षा में थी परन्तु हम सब लड़कियों से उसकी उम्र दो - तीन साल अधिक थी । तिस पर उसका अक्खड़ स्वभाव सभी लड़कियों पर अपना रौब डालता था ।
मैं क्लास की मॉनिटर होने पर भी उसकी उद्दंडता के लिए उसे कुछ कहने से घबराती थी । दिन भर वो फ़िल्मी गाने गाती , लड़कियों से गपशप करती और डेस्कों पर किसी कुशल नट की भाँति कूदती फाँदती कक्षा के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच जाती ।
लगभग सभी विषयों की अध्यापिकाएं उसे पढ़ाई में लापरवाह होने की वजह से डाँटा करतीं , मगर उस पर इन सब बातों का कोई असर नहीं पड़ता था । क्लास से टीचर के जाने के बाद वो कहती - अरे ! कौन इनकी परवाह करे ? अधिकतर सभी लड़कियाँ उसकी दादागिरी के कारण उसकी बात माना करती थीं ।
एक दिन वो लड़कियों को अपने घर की कोई घटना सुनाते हुए कहा रही थी - कल मेरी माँ ने मेरे छोटे भाई को उसकी किसी गलती पर पीटकर उसे अलग कमरे में बन्द कर दिया । मैंने कहा - भली औरत ! बच्चे के साथ ऐसा सुलूक क्यों करतीहै ?
उसके मुँह से अपनी माँ के लिए " भली औरत " का सम्बोधन सुन कर मैं दंग रह गई लगा घर में भी इसका बहुत दबदबा है ।
आठवीं कक्षा के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई । वो फिर कभी याद नहीं आई । परन्तु एक दिन कॉलेज जाते समय अचानक वो मेरे सामने आ गई । लगभग पाँच छः साल के अंतराल के बाद मैंने उसे आज देखा तो उसका हुलिया काफ़ी बदल चुका था ।
पहले जिन छोटे छोटे बालों की वो कसी हुई पोनी बनाए रखती थी , जो कि उसकी कदमताल पर दाएं बाएं चुस्ती से झूलती थी , आज वो परिवर्तित हो कर ढीली सी चोटी में गुँथे हुए थे । उसमें से बालों की कुछ लटें अस्त - व्यस्त सी बाहर निकली हुईं थीं ।
माथे पर छोटी सी बिन्दी लापरवाही से चिपकी हुई , साड़ी और पैरों में हवाई चप्पल पहने , गोद में शिशु को सम्भाले , वो धीरे धीरे कदम बढ़ाकर बाज़ार की ओर जा रही थी ।
मैंने रुक कर उसे आवाज़ दी - उषा ! उसने भी प्रत्युत्तर दिया - ओह ! कैसी है तू ? मैंने कहा मैं ठीक हूँ
फिर मैंने गोद के बालक की ओर इशारा करते हुए पूछा - ये कौन है ? उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया - मेरा बेटा ....
उसने पूछा - कहाँ जा रही है ? कॉलेज - मैंने उत्तर दिया । फिर मैंने भी उसके हालचाल पूछने के बाद प्रश्न किया कि वो कहाँ जा रही है ? उसने कहा कि मैं बिजली का बिल जमा कराने जा रही हूँ ।
फिर हमने मुस्कुराते हुए एक दूसरे से विदा ली । किन्तु उषा मेरे मन में एक प्रश्न छोड़ गई कि क्या यही है वो लड़की जो कुछ वर्ष पहले मेरे साथ स्कूल में पढ़ती थी ? अब वो एक बच्चे की माँ बन चुकी थी और उस पर गृहस्थी का बोझ लदा हुआ था ।
उसकी वो चंचलता और अक्खड़पना कहाँ गायब हो गया ? कहाँ गया उसका वो रौब जो किसी को सहज ही उसकी बात मनवाने को विवश कर दिया करता था ? कैसे उसके कदमों की उच्चश्रंखलता थकी हुई चाल में बदल गई ? कैसे उसके चुस्त व्यक्तित्व में इतना ढीलापन आ गया ? ........
ऐसे और भी प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उमड़ रहे थे और मैं अभी भी विश्वास नहीं कर पा रही थी कि क्या यही थी उषा ? क्या यही है उषा .......
पूनम अग्रवाल
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मैं क्लास की मॉनिटर होने पर भी उसकी उद्दंडता के लिए उसे कुछ कहने से घबराती थी । दिन भर वो फ़िल्मी गाने गाती , लड़कियों से गपशप करती और डेस्कों पर किसी कुशल नट की भाँति कूदती फाँदती कक्षा के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच जाती ।
लगभग सभी विषयों की अध्यापिकाएं उसे पढ़ाई में लापरवाह होने की वजह से डाँटा करतीं , मगर उस पर इन सब बातों का कोई असर नहीं पड़ता था । क्लास से टीचर के जाने के बाद वो कहती - अरे ! कौन इनकी परवाह करे ? अधिकतर सभी लड़कियाँ उसकी दादागिरी के कारण उसकी बात माना करती थीं ।
एक दिन वो लड़कियों को अपने घर की कोई घटना सुनाते हुए कहा रही थी - कल मेरी माँ ने मेरे छोटे भाई को उसकी किसी गलती पर पीटकर उसे अलग कमरे में बन्द कर दिया । मैंने कहा - भली औरत ! बच्चे के साथ ऐसा सुलूक क्यों करतीहै ?
उसके मुँह से अपनी माँ के लिए " भली औरत " का सम्बोधन सुन कर मैं दंग रह गई लगा घर में भी इसका बहुत दबदबा है ।
आठवीं कक्षा के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई । वो फिर कभी याद नहीं आई । परन्तु एक दिन कॉलेज जाते समय अचानक वो मेरे सामने आ गई । लगभग पाँच छः साल के अंतराल के बाद मैंने उसे आज देखा तो उसका हुलिया काफ़ी बदल चुका था ।
पहले जिन छोटे छोटे बालों की वो कसी हुई पोनी बनाए रखती थी , जो कि उसकी कदमताल पर दाएं बाएं चुस्ती से झूलती थी , आज वो परिवर्तित हो कर ढीली सी चोटी में गुँथे हुए थे । उसमें से बालों की कुछ लटें अस्त - व्यस्त सी बाहर निकली हुईं थीं ।
माथे पर छोटी सी बिन्दी लापरवाही से चिपकी हुई , साड़ी और पैरों में हवाई चप्पल पहने , गोद में शिशु को सम्भाले , वो धीरे धीरे कदम बढ़ाकर बाज़ार की ओर जा रही थी ।
मैंने रुक कर उसे आवाज़ दी - उषा ! उसने भी प्रत्युत्तर दिया - ओह ! कैसी है तू ? मैंने कहा मैं ठीक हूँ
फिर मैंने गोद के बालक की ओर इशारा करते हुए पूछा - ये कौन है ? उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया - मेरा बेटा ....
उसने पूछा - कहाँ जा रही है ? कॉलेज - मैंने उत्तर दिया । फिर मैंने भी उसके हालचाल पूछने के बाद प्रश्न किया कि वो कहाँ जा रही है ? उसने कहा कि मैं बिजली का बिल जमा कराने जा रही हूँ ।
फिर हमने मुस्कुराते हुए एक दूसरे से विदा ली । किन्तु उषा मेरे मन में एक प्रश्न छोड़ गई कि क्या यही है वो लड़की जो कुछ वर्ष पहले मेरे साथ स्कूल में पढ़ती थी ? अब वो एक बच्चे की माँ बन चुकी थी और उस पर गृहस्थी का बोझ लदा हुआ था ।
उसकी वो चंचलता और अक्खड़पना कहाँ गायब हो गया ? कहाँ गया उसका वो रौब जो किसी को सहज ही उसकी बात मनवाने को विवश कर दिया करता था ? कैसे उसके कदमों की उच्चश्रंखलता थकी हुई चाल में बदल गई ? कैसे उसके चुस्त व्यक्तित्व में इतना ढीलापन आ गया ? ........
ऐसे और भी प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उमड़ रहे थे और मैं अभी भी विश्वास नहीं कर पा रही थी कि क्या यही थी उषा ? क्या यही है उषा .......
पूनम अग्रवाल
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