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जीना
जीना बहुत मुश्किल काम हैं या कहें सबसे आसान। जहाँ ज़िन्दगी जीना, के साथ सोच जुड़ जाए तो वो आसान नहीं रहती।
कभी कभी मैं सोचती हूँ,
हम में भावनायें शुन्य हो जाये तो अच्छा हो,
हम बस ज़िन्दगी जियेंगे पर उसके बारें में सोचेंगे नहीं।
ऐसे बहुत से लोग देखें हैं जो वाक़ई ऐसे है। बस जीते हैं कैसे जी रहे है, क्या महसूस हो रहा है, कहाँ भावनाओँ को दिखाया जाये उन्हें नहीं पता।पर ये भी अधूरा सच हैं,
कहीं मन के किसी कोने में, चंद घड़ी के लिए वो किताब खोलते हैं पर उसकी सच्चाई से डरके फिर बंद कर देते हैं।
और फिर वहीँ रोज़ मर्रा की बिना सोच के दुनिया जीना फ़िर कहीं अँधेरे में छुप के ख़ुद को ढूंढ़ना।

पर ऐसों की भी कमी नहिं जो बस जीतें हैं छिले हुए जिस्मों से, टूटे हुए मन से, कभी हज़ार बार किसी नए सोच को जन्म देते उस पीड़ा से गुजरते हैं, पर जीते हैं, दो टूक जीते हैं बेबाक़ जीते हैं।
क्योंकि ज़िन्दगी जिम्मेदारी हैं।
बहरहाल वो भी आसान नहीं,
कितना मुश्किल होता हैं खुद के लिए जीना,
और कितना मुश्किल होता हैं दूसरे के लिये जीना।
हम दोनों सूरतों में ढेर होते हैं, दोनों सूरतों में हारते हैं और दोनों सूरतों में जीत जाते हैं।
बस सोचना मात्र इतना हैं कि हम आईने के किस ओर खड़ें हैं।